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सारसमुच्चय भावार्थ-अज्ञानी दुःखोंके पड़नेपर मनमें त्रासित होकर घबड़ाते हैं व शोच करते हैं परन्तु सम्यग्ज्ञानी कर्मोंके दुःखको जानकर, अपना ही अपराध मानकर, सन्तोषित रहकर समभाव रखते हैं। जैसे तीव्र पवन रुईके ढेरको उड़ा सकती है, परन्तु सुमेरु शिखरको कदापि नहीं उड़ा सकती है, वह निश्चल बना रहता है । साधुजन परीषह व उपसर्गोंको बड़ी ही शांतिसे सहन कर लेते हैं। ज्ञान पानेका फल स्वरूपरमणता है
परं ज्ञानफलं वृत्तं न विभूतिगरीयसी ।
तथा हि वर्धते कर्म सद्वृत्तेन विमुच्यते ॥३०७॥ अन्वयार्थ-(ज्ञानफलं परं वृत्तं न गरीयसी विभूतिः) शास्त्रज्ञान पानेकी सफलता उत्तम चारित्र-पालन है न कि विपुल धनका लाभ । (तथा हि कर्म वर्धते) विपुल धनके संयोगसे तो कर्मोंका बंध बढ़ेगा जब कि (सवृत्तेन विमुच्यते) स्वरूपाचरणरूप सम्यक्चारित्रसे बंधका नाश होगा। ___ भावार्थ-जो कोई विद्या पढकर व शास्त्रोंका ज्ञाता होकर उस ज्ञानके फलसे बहुत धनका संचय करना चाहता है वह कुफलको चाहता है, ज्ञानका दुरुपयोग करता है। क्योंकि धनरूपी परिग्रह मूर्छा बढ़ानेमें कारण होगा जिससे कर्मोंका अधिक संचय होगा, परम्पराय संसार बढ़ेगा । शास्त्रज्ञानका फल वैराग्य है। तत्त्वज्ञानीको यथाशक्ति व्यवहारचारित्र पालकर निश्चय आत्मरमणरूप चारित्रका अभ्यास करना चाहिए, जिससे नवीन कर्मोंका संवर हो व पुरातन कर्मोंकी निर्जरा हो और यह आत्मा बंधसे छूटकर मुक्त हो जावे और शुद्ध होकर सदाके लिए कृतकृत्य और सुखी हो जावे । फिर भवभवमें भटकना न पड़े।
संवेगः परमं कार्यं श्रुतस्य गदितं बुधैः ।
तस्माद्ये धनमिच्छन्ति ते त्विच्छन्त्यमृताद्विषम् ॥३०८॥ अन्वयार्थ-(श्रुतस्य परमं कार्य संवेगः बुधैः गदितं) शास्त्रज्ञानका उत्तम फल वैराग्य है ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है (तस्मात्) उस शास्त्रज्ञानसे (ये धनं इच्छन्ति) जो कोई धनकी चाहना करते हैं (ते तु अमृतात् विषं इच्छंति) वे तो अमृत पीकर विषकी चाह करते हैं।
भावार्थ-जिनवाणीका भले प्रकार अभ्यास जो करे उसको संसारशरीर-भोगोंसे वैराग्य आना चाहिए तथा उसे आत्म-कल्याणका प्रयत्न
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