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सारसमुच्चय दीक्षाको अङ्गीकार करता है।
भावार्थ-ज्ञानी सम्यक्दृष्टि चक्रवर्ती पुण्यके उदयसे प्राप्त भोग्य पदार्थों को और छ: खण्ड पृथ्वीको भोगते हुए भी उदास रहते हैं। वे आत्मानन्द और आत्मशांतिके ही रोचक होते हैं । जब तक कषायका उदय मन्द नहीं होता है तब तक ही वे गृहस्थ-दशामें रहते हैं। जब स्वात्मानुभवका अभ्यास करते हुए उनकी प्रत्याख्यानावरण कषाय उपशम हो जाती है तब वे शीघ्र ही सर्व परिग्रह त्यागकर मुनिदीक्षा धारण कर लेते हैं, जो साक्षात् मोक्षका उपाय है।
कृमितुल्यैः किमस्माभिः भोक्तव्यं वस्तुसुन्दरं ।
तेनात्र गृहपङ्केषु सीदामः किमनर्थकम् ॥१३७॥ अन्वयार्थ-(कृमितुल्यैः) कीडोंके समान (अस्माभिः) हम लोगोंको (किं सुंदरं वस्तु भोक्तव्यं) क्यों सुन्दर पदार्थोंका भोग करना चाहिए? (किं तेन) क्योंकि उससे तो (अत्र) इस लोकमें (गृहपंकेषु) घरकी कीचडमें फँसकर (अनर्थकम्) वृथा (सीदामः) कष्ट उठाने पड़ेंगे ?
भावार्थ-वर्तमान इस दुःषमा पंचमकालमें चौथे कालकी अपेक्षा मानवोंकी अवस्था कीड़ोंके बराबर है। भोग-सामग्री भी बहुत अल्प हैं। बुद्धिमानोंको उचित है कि इन अतृप्तिकारी भोगोंमें लिप्त न होकर ऐसा उपाय करें जिससे इस आत्माको इस जन्ममें भी सुख हो और परलोकमें भी सुख मिले। यदि ऐसा न करके तुच्छ भोगोंमें तन्मय हुआ रहेगा तो गृहस्थीकी कीचड़में यहाँ भी कष्ट होगा और पाप बाँधकर आगे भी दुःख होगा, कभी शांति नहीं मिल सकती है, मानव-जन्म वृथा ही चला जायेगा।
येन ते जनितं दुःखं भवाम्भोधौ सुदुस्तरम् ।
'कर्मारातिमतीवोग्रं विजेतुं किं न वाञ्छसि ॥१३८॥ अन्वयार्थ-(येन) जिसके द्वारा (ते) तुझे (भवाम्भोधौ) इस संसाररूपी समुद्रमें (सुदुस्तरं दुःखं जनितं) अतीव कठिन दुःख प्राप्त हुए हैं (अतीव उग्रं) ऐसे दुःखद समयमें आत्माके शत्रु इन अत्यंत भयानक (कर्मारातिम्) कर्मरूपी शत्रुओंको (विजेतुं) जीतनेकी (किं न वाञ्छसि) इच्छा क्यों नहीं करते हो ?
भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि हे भव्य जीव ! कर्मोंके संयोगसे तूने इस संसार समुद्रमें गोते खाते हुए बहुत ही भयानक असह्य दुःख उठाए हैं, तेरा शुद्ध स्वरूप इन कर्मोंने छिपा दिया है । तुझे अविद्या तथा तृष्णाका दास
पाठान्तर-१. तं कर्मारातिमत्युग्रं ।
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