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सारसमुच्चय समभाव रखते हैं, (लाभालाभे समः) लाभ और हानिमें समता रखते हैं (तथा नित्यं लोष्ठकांचनयोः समः) उसी तरह जो सदा कंकड़ और सुवर्णमें समभाव-एकसा भाव रखते हैं (सम्यक्त्व-भावनाशुद्धं) जिनकी भावना सम्यग्दर्शनके कारण शुद्ध रहती है और (ज्ञानसेवापरायणं) जो तत्त्वज्ञानकी सेवामें तत्पर रहते हैं, (चारित्राचरणासक्तं) जो सम्यक्चारित्रके आचरणोंमें आसक्त हैं, (अक्षीणसुखकांक्षिणम्) अविनाशी आत्मिक सुखकी ही जिनको इच्छा है (ईदृशं श्रमणं दृष्ट्वा) ऐसे सच्चे निग्रंथ श्रमण(साधु)को देखकर (यः दुष्टधीः) जो दुष्टबुद्धि मानव (न मन्यते) भक्ति नहीं करता है उसका (नृजन्मं निष्फलं) मानवजन्म निरर्थक होता है। (सारं सर्वथा संहारयति) इस जन्मसे जो सार फल प्राप्त करना था वह उसको बिलकुल नष्ट कर डालता है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि आत्मज्ञानी शास्त्रोक्त आचरण करनेवाले जितेन्द्रिय वीतरागी साधु सच्चे मोक्षमार्गी साधु हैं। उनका दर्शन करके जीव तृप्त हो जाते हैं। ऐसे उत्तम पात्रका लाभ हो जावे तो दातार गदगद हो जाते हैं, अपना जन्म सफल मानते हैं, और नवधा भक्ति करके दान देते हैं । जो अज्ञानी, अभिमानी, दुष्ट मानव हैं वे ऐसे आत्मज्ञानी साधुओंको देखकर मुँह फेर लेते हैं, उनको दानादि नहीं देते हैं । वे मानव देव, गुरु, धर्मकी श्रद्धा न रखते हुए बहिरात्मा और मानी कहे जाते हैं । वे मानवजन्मका सार नहीं पाते, और न ही उनका जीवन सफल हो सकता है। इस नरजन्मकी सफलता तो आत्मज्ञान व आत्मानुभवके लाभसे होती है जिससे वर्तमानमें भी सहज सुखशांति मिलती है और भविष्यमें भी सुंदर जीवन प्राप्त होता है।
रागादिवर्द्धनं सङ्गं परित्यज्य दृढव्रताः ।
धीरा निर्मलचेतस्का तपस्यन्ति महाधियः॥२२३॥ अन्वयार्थ-(रागादिवर्द्धनं संगं) रागद्वेषादिको बढानेवाले परिग्रहका (परित्यज्य) परित्याग करके (महाधियः) महान बुद्धिमान साधु (दृढव्रताः) दृढतासे व्रतोंका पालन करते हैं (निर्मलतस्काः ) और चित्तको शुद्ध रखते हुए (धीराः) वे धैर्यवान (तपस्यन्ति) तपका आचरण करते हैं।
भावार्थ-कर्मोंकी निर्जरा तपके बिना नहीं हो सकती है । तपस्वियोंके लिए आवश्यक है कि वे अंतरंग व बहिरंग परिग्रहोंका त्याग करे, क्षुधातृषा-शीत-उष्णादि. बाईस परिषहोंको समताभावसे सहन करें, अपने अहिंसादि पाँच व्रतोंका दृढतासे पालन करें और चित्तमें माया मिथ्या निदान आदि कोई दोष न रक्खें-परम धैर्यके साथ आत्मध्यानका साधन करें।
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