Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 149
________________ १३२ सारसमुच्चय अन्वयार्थ-(धनहीनः अपि ) धनहीन होकर भी मनुष्य यदि ( सद्वृत्तः ) सदाचारी है, सम्यग्दर्शन सहित चारित्रका पालनेवाला है, तो वह (निर्वाणनाथतां याति) मोक्षको प्राप्त कर लेता है किन्तु (चक्रवर्ती अपि) चक्रवर्ती सम्राट भी हो ( असद्वृत्तः ) और मिथ्यात्वसहित कुत्सित आचारको पालनेवाला हो तो ( दुःखपरंपराम् याति) दुःखोंकी परम्पराको पाता रहता है । भावार्थ-आत्मप्रतीतिसहित चारित्र ही जीवको यहाँ भी सुखी रखता है व आगे भी सुखी बनाता है । जिसको आत्मानन्दका अनुभव पूजा, जप, तप, स्वाध्याय, सामायिकके द्वारा आता है, वह धनहीन होने पर भी सुख भोगता है । वह शुभगतिमें जाकर सुखी रहता है, परम्परासे वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है । परन्तु जो चक्रवर्तीके समान धनवान हो और आचार भ्रष्ट हो, न सम्यग्दृष्टि हो, न आत्मज्ञानी हो, न श्रावक व्रत पाले, न मुनिव्रत पाले, किन्तु हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँचों पापोंमें प्रवृत्ति करे तो वह वहाँ भी आकुलित रहता है तथा मरकर नरक और पशुगतिमें जाकर भी दुःख उठाता है । उसको बहुतसे दुःखमय जन्म धारण करने पड़ते हैं । सुखरात्रिर्भवेत्तेषां येषां शीलं सुनिर्मलम् । न सच्छीलविहीनानां दिवसोऽपि सुखावहः ॥२८४॥ अन्वयार्थ - ( येषां सुनिर्मलं शीलम् ) जिनका पवित्र चारित्र है ( तेषां सुखरात्रिः भवेत् ) उनकी रात्रि सुखसे, निराकुलतासे बीतती है । ( सच्छीलविहीनानां ) जिनका चारित्र ठीक नहीं है- जो सदाचारी नहीं हैं- - उनका ( दिवसः अपि सुखावहः न ) दिन भी सुखदायी नहीं है । भावार्थ-चारित्रसे शांति रहती है, चिन्ता नहीं रहती है, संतोष रहता है तब रात्रिको सुखसे निद्रा आती है । परन्तु जिनका चारित्र ठीक नहीं होता है वे द्यूतरमण, शिकार, चोरी, वेश्या, परस्त्रीगमन, मांसाहार, मदिरापान, अन्याय और तीव्र विषयभोगोंकी लालसामें फँसे रहते हैं, उनको न दिनमें चैन न रात्रिमें चैन है, वे आकुलता व चिन्तामें ग्रसित रहते हैं । उन्हें इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, शरीर रोगी होनेकी बड़ी बड़ी चिन्ताएँ सताती हैं । उनका जीवन कष्टमय रहता है । अतएव बुद्धिमान मानवका कर्तव्य है कि वह सदाचारी रहे, पाँच पापोंसे बचे, प्राप्त भोगमें संतोष रखे व धर्म-साधनमें दत्तचित्त रहे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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