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वीतराग विज्ञानमय मार्ग दुर्लभ है १३७ हैं । सम्पत्ति होनेपर नम्रता व विनय रखना ही शोभनीय है न कि घमण्ड करना । जो घमण्ड करते हैं और दूसरोंको सताते हैं, तिरस्कार करते हैं, उनको ऐसा पापका बन्ध हो जाता है कि वह इसी जन्ममें उदय आ जाता है और उसके फलसे घमण्डीका पतन हो जाता है । दीपककी लौ बुझते समय बढ़ जाती है । वह अहंकार करके मानो मिट जाती है।
हीनयोनिषु बंभ्रम्य चिरकालमनेकधा ।
उच्चगोत्रे सकृत् प्राप्ते कोऽन्यो मानं समुद्वहेत् ॥२९५॥ अन्वयार्थ-(हीनयोनिषु चिरकालं अनेकधा बम्भ्रम्य सकृत् उच्चगोत्रे प्राप्ते) यह जीव नीच योनियोंमें दीर्घकाल तक अनेक तरहसे जब भ्रमण कर चुकता है तब कहीं पुण्यके योगसे एक बार उत्तम योनिमें जन्म प्राप्त करता है । (अन्यः कः मानः समुद्वहेत्) ऐसी दशामें कौन ऐसा है जो अहंकार करे ? ___ भावार्थ-उच्च कुलमें जन्म लेकर धनादिका अभिमान करना वृथा है । क्योंकि इस जीवको नीच कुलोंमें बारबार जन्मना पड़ता है तथा अनेक बार धनहीन होना पड़ता है, तब कहीं बड़े पुण्ययोगसे उच्च कुलमें जन्म होता है या धनवानपना प्राप्त होता है। ऐसे क्षणभंगुर संयोगके होनेपर ज्ञानी जीव अहंकार नहीं करते हैं, प्रत्युत विनयवान व नम्र होकर जगतकी सेवा करते हैं व धर्मसाधन करके आत्मकल्याण करते हैं । मान ही विवादकी जड़ है। वीतराग-विज्ञानमय मार्ग दुर्लभ है
रागद्वेषौ महाशत्रू मोक्षमार्गमलिम्लुचौ ।
ज्ञानध्यानतपोरत्नं हरतः सुचिरार्जितम् ॥२९६॥ अन्वयार्थ-(रागद्वेषौ महाशत्रू) राग और द्वेष महाशत्रु हैं, (मोक्षमार्गम् अलिम्लुचौ) मोक्षके वीतराग विज्ञानमय मार्गको लूटनेवाले हैं, (सुचिरार्जितम् ज्ञानध्यानतपोरत्नं हरतः) ये दीर्घकालसे संचय किये हुए ज्ञान, ध्यान, तपरूपी रत्नको लूट लेते हैं।
भावार्थ-मोक्षमार्गीको रागद्वेष त्यागकर वीतरागभावकी ही शरण ग्रहण करनी चाहिए। आत्माके प्रबल वैरी रागद्वेष हैं। ये ही आत्माकी ज्ञान-ध्यान-तपरूपी सम्पत्तिको हर लेते हैं और इसे दीन, हीन, दरिद्री, पापी, अन्यायी, दुराचारी बना देते हैं, कषायवान कर देते हैं और संसारके भयानक गर्तमें पटक देते हैं।
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