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गुण पूज्य होते हैं (शीलहीनः) जो चारित्र रहित (धनाढ्यः अपि) धनवान भी है वह (स्वजने अपि) अपने लोकोंमें भी (पूज्यः न) पूज्यनीय नहीं होता है । ___भावार्थ-इस जगतमें गुण ही पूज्य हैं । जो महानुभाव धनहीन हैं परन्तु शीलवान हैं, चारित्रवान हैं, वे जगतमें लोक सन्मानको पाते हैं तथा जो धनवान तो हैं परन्तु चारित्रविहीन हैं, असदाचारी हैं उनको इस लोकमें कहीं भी आदर नहीं मिलता है । वे यहाँ भी तुच्छ होते हैं तथा परलोकमें भी दुर्गतिको पाते हैं।
वरं शत्रुगृहे भिक्षा याचना शीलधारिणां ।
न तु सच्छीलभङ्गेन साम्राज्यमपि जीवितम् ॥२८१॥ अन्वयार्थ-(शीलधारिणां) चारित्र पालनेवालोंको (शत्रुगृहे) शत्रुके घरमें भी (भिक्षा याचना वरं) भिक्षा लेना अच्छा है (तु) परन्तु (सच्छीलभंगेन) सदाचारको नाश करके (साम्राज्यं अपि जीवितम् न) चक्रवर्ती होकर भी जीना ठीक नहीं है ।
भावार्थ-सदाचारी धर्मात्मा साधु यदि शत्रुके घरमें चला जावे और उसको भिक्षाके बदलेमें प्राण देने पड़ें तो भी ठीक है, उसके आत्माका कल्याण है, परन्तु जो चक्रवर्ती भी हो, परन्तु चारित्रहीन हो तो उसका जीवन किसी कामका नहीं है ।
प्रयोजन यह है कि हमें अपने चारित्रको उज्ज्वल रखना चाहिए। . चारित्र ही आत्माको हितकारी है व जगतमें पूजनीय है ।
वरं सदैव दारिद्र्यं शीलैश्वर्यसमन्वितम् ।
न तु शीलविहीनानां विभवाश्चक्रवर्तिनः ॥२८२॥ अन्वयार्थ-(शीलैश्वर्यसमन्वितम्) शील या चारित्ररूप धनसहित (दारिद्र्यं) दरिद्री होना (सदैव वरं) सदा ही अच्छा है (तु) परन्तु (शीलविहीनानां) जो चारित्रसे शून्य हैं (चक्रवर्तिनः विभवाः न) उनकी चक्रवर्तीकी विभूतियाँ भी ठीक नहीं हैं ।
भावार्थ-चारित्रको पालते हुए यदि कोई धनरहित है तो भी वह ऐश्वर्यवान' है व सदा ही माननीय है, परन्तु चारित्रशून्य हो तो वह निन्दनीय है । अतएव चारित्रको भले प्रकार पालना चाहिए।
धनहीनोऽपि सद्वृत्तो याति निर्वाणनाथतां ।
चक्रवर्त्यप्यसवृत्तो याति दुःखपरम्पराम् ॥२८३॥ १. शास्त्राकार प्रतिमें यह श्लोक नहीं है ।
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