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सारसमुच्चय शतानि च) व सैंकडों अश्वमेध यज्ञ किये जावें, (तेन अनन्त-भागतुल्यानि कदाचन न स्यः) तो भी उनका फल उस ऊपर लिखित आत्मयज्ञके अनन्तवे भागके बराबर भी कभी नहीं हो सकता है।
भावार्थ-कोई-कोई राजा लोग राज्याभिषेकके समय मीमांसक मतके अनुसार राजसूय यज्ञ करते थे व कभी-कभी अश्वमेध यज्ञ करते थे जिसमें घोड़ोंकी बलि दी जाती थी। इन यज्ञोंके करनेसे पुण्य नहीं होता किन्तु हिंसाके कारण पापबंध ही होता है। जो कोई ऐसे यज्ञोंके करनेसे सुख माने, उसके लिए आचार्य कहते हैं कि हजारों ऐसे यज्ञोंका फल बहुत तुच्छ है, पापबन्धका कारण है, उससे अनन्तगुणा उत्तम फल आत्मयज्ञमें है, जिसमें आत्मध्यानकी अग्नि द्वारा कर्मोंको और रागद्वेषको जलाया जाता है।
ध्यानी जीवकी अनाएँ सा प्रज्ञा या शमे याति विनियोगपराहिता ।
शेषा च निर्दया प्रज्ञा कोपार्जनकारिणी ॥२५७॥ अन्वयार्थ-(सा प्रज्ञा शमे याति) वही विवेकबुद्धि शांतिकी ओर ले जाती है (या हिता विनियोगपरा) जो वैराग्यके भीतर तत्पर है, (शेषा च प्रज्ञा कर्मोपार्जनकारिणी निर्दया) उसके सिवाय जो बुद्धि रागद्वेषमें लवलीन है वह कर्मोंका बन्ध करानेवाली है और निर्दयी है, आत्माकी दयासे शून्य है ।
भावार्थ-आत्मा और अनात्माके विवेकको प्रज्ञा कहते हैं । ऐसी प्रज्ञाको पाकर जो कोई अनात्मासे विरक्त होकर अपनी आत्मसाधनामें लवलीन रहता है उसीकी प्रज्ञा मोक्षकी साधक है । जो आत्मा व अनात्माका भेद पाकरके भी निश्चयनयका एकान्त पकड़ ले कि आत्मा तो सदा अबंधक ही है, न इसके पापका बन्ध है न पुण्यका बन्ध है, पुद्गलकी करणीसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा एकान्त पकड़कर स्वच्छन्दी हो जावे, आचरणभ्रष्ट हो जावे, विषयभोगोंमें रत हो जावे तो वह रागद्वेषोंके वर्तनसे पापका ही बंध करेगा। बंधरहित वही होगा जो विवेक होनेपर परपदार्थोंसे वैराग्यभाव रखकर निजात्माका ध्यान करेगा।
प्रज्ञाङ्गना सदा सेव्या पुरुषेण सुखावहा ।
हेयोपादेयतत्त्वज्ञा याऽरता सर्वकर्मणि ॥२५८॥ अन्वयार्थ-(पुरुषेण) पुरुषको उचित है कि (प्रज्ञाङ्गना सदा सेव्या) प्रज्ञारूपी स्त्रीकी सदा सेवा करे (या) जो (सुखावहा) सुख देनेवाली है, (हेयोपादेयतत्त्वज्ञा)
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