Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 142
________________ ध्यानी जीवकी अङ्गनाएँ चित्रं नरकतिर्यक्षु भ्रमतोऽपि निरंतरं । जन्तोः सुविद्यते नैव समो दुरितबंधिनः ॥ २६४ ॥ * अन्वयार्थ - (निरंतरं नरकतिर्यक्षु भ्रमतः अपि) निरन्तर नरक गतिमें और पशुगतिमें भ्रमण करते हुए भी (दुरितबंधिनः ) पापोंको बाँधनेवाले (जन्तोः) जीवके (सु समः नैव विद्यते चित्र) समताभाव नहीं आता है यही आश्चर्य है । १२५ भावार्थ - जो बारबार बहुत दुःख उठाये हैं उन्हें समझकर फिर ऐसा काम नहीं करना चाहिए जो दुःखदायी हो । परन्तु मोहकी बड़ी महिमा है जो मानवको मूढ बना देती है । वह बारबार वही काम करता है जिससे दुःख पाता है। इस जीवने मोहके कारण पाप बाँधकर नरक - पशुगतिमें बहुत दुःख उठाए हैं तो भी यह अपने परिणामोंको वैराग्यवान नहीं बनाता है और समताका सेवन नहीं करता है । यही इसकी बड़ी भूल है । मनस्याह्लादिनी सेव्या सर्वकालसुखप्रदा । उपसेव्या त्वया भद्र ! क्षमा नाम कुलाङ्गना ॥ २६५॥ अन्वयार्थ - (भद्र) हे भव्य जीव ! (मनस्य आह्लादिनी) मनको प्रसन्न रखनेवाली (सर्वकालसुखप्रदा) और सर्वकालमें सुख देनेवाली, (सेव्या) सेवने योग्य (क्षमा नाम कुलांगना ) क्षमा नामकी कुलवान स्त्रीका ( त्वया उपसेव्या) तुझे बारबार सेवन करना चाहिए । क्षमाभाव भावार्थ - उत्तम क्षमा, साधु महात्माकी परम प्यारी स्त्री होती है । साधु गाली सुननेपर व कष्ट दिये जानेपर भी क्रोधभाव नहीं करते हैं, धारण करते हैं । इससे उनका मन कभी क्लेशित नहीं होता है । सदा ही उनके मनमें सन्तोष तथा सुख रहता है । क्षमाकी वे सदा ही सेवा करते हैं, वे जगतमात्रके प्राणियोंपर क्षमाभाव धारण करते हैं । क्षमा ही वीर पुरुषोंका आभूषण है । क्षमया क्षीयते कर्म दुःखदं पूर्व सञ्चितम् । चित्तं च जायते शुद्धं विद्वेषभयवर्जितम् ॥ २६६॥ अन्वयार्थ - (क्षमया) उत्तम क्षमाके प्रतापसे (पूर्वसंचितं) पूर्वकालमें बाँधा हुआ * श्लोक २६४के पूर्व अन्यत्र निम्न श्लोक है : कर्मणां ध्वंसने चित्तं रागं मोहारिनाशने । द्वेषं कषायवर्गं च नायोग्यो लब्धुमर्हति ॥ भावार्थ-चित्तका कर्मोंके विध्वंस करनेमें होना, रागका मोहरूपी शत्रुके नाश करनेमें होना और द्वेषभाव कषायसमूहके प्रति होना, ऐसा अयोग्य जीव नहीं कर सकता, पुरुषार्थी - योग्य जीव ही ऐसा कर सकता है । अर्थात् For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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