Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 143
________________ १२६ सारसमुच्चय (दुःखदं कर्म) दु:खदायी कर्म (क्षीयते) क्षय हो जाता है (चित्तं विद्वेषभयवर्जितम् शुद्धं च जायते) तथा चित्तमेंसे द्वेष या भय निकल जाता है-चित्त शुद्ध हो जाता है। भावार्थ-जो महात्मा क्रोध नहीं करते हैं उनका सबके साथ मैत्रीभाव होता है, वे सदा शांत रहते हैं। क्रोधके कारण होनेपर भी क्रोध नहीं करते । जब उनका किसीसे वैर नहीं होता है तब उनके भीतरसे द्वेष या भय निकल जाता है। मनमें सदा शुद्धि बनी रहती है। न वे अहंकार करते हैं न ही द्वेष करते है। प्रज्ञा तथा च मैत्री च समता करुणा क्षमा । सम्यक्त्वसहिता सेव्या सिद्धिसौख्यसुखप्रदा ॥२६७॥ अन्वयार्थ-ज्ञानीको उचित है कि (सिद्धिसौख्यसुखप्रदा) सिद्धिके अनुपम सुखको देनेवाली इन (प्रज्ञा तथा च मैत्री च समता करुणा क्षमा) प्रज्ञा, मैत्री, समता, दया और क्षमा इन पाँचोंको (सम्यक्त्वसहिता सेव्या) सम्यग्दर्शन सहित सेवन करें। भावार्थ-जो महात्मा साधु मोक्षसुखको प्राप्त करना चाहें, उनको उचित है कि सम्यग्दर्शनको दृढतासे पालते हुए भेद-विज्ञानसे आत्माको अनात्मासे भिन्न विचारे, प्राणीमात्रपर मैत्रीभाव रक्खे, रागद्वेष टालकर समभावका अभ्यास करे, दुःखी प्राणियों पर करुणाभाव रखते हुए द्वेष करनेवाले और विरोध करनेवालों पर उत्तम क्षमाभाव रक्खे, इन ही सखियोंके सहारे वे मोक्षनगरको जा सकेंगे। सत्संगति भयं याहि भवाद् भीमात् प्रीतिं च जिनशासने । शोकं पूर्वकृतात्पापाद्यदीच्छेद्धितमात्मनः ॥२६८॥ अन्वयार्थ-(यदि आत्मनः हितं इच्छेत्) हे भव्य जीव ! यदि तू आत्माका हित करना चाहता है तो निम्न काम कर, (भीमात् भवात् भयं याहि) इस भयानक संसारके दुःखोंसे भय कर, (जिनशासने च प्रीति) जिनशासनमें प्रेम कर, (पूर्वकृतात् पापात् शोकं) और पूर्व किये हुए पापका शोक कर । भावार्थ-आत्माका हित कर्मोंसे छूटकर स्वाधीन होनेमें है । तब उसके लिए इस चतुर्गतिमय संसारमें मेरा पतन न हो ऐसे कार्योंसे भयभीत रहना योग्य है तथा जिनवाणीका पठनपाठन करके धर्मको यथार्थ समझना योग्य है। तथा पूर्वमें किये हुए पापोंका पश्चात्ताप करके आगे उनसे बचनेकी भावना करनी योग्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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