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ध्यानका साधन
१२१ भावार्थ-कायर या डरपोक मानव युद्धमें सफलता नहीं पा सकता है । इसी तरह जो आत्माका हित तो करना चाहे परन्तु आत्महितके साधनोंमें अपनेको न लगावे, किन्तु उसके विरुद्ध वर्तन करे तो उसका हित कैसे हो सकता है ? शास्त्रज्ञानका अभाव, गृहारम्भमें आसक्ति, रागद्वेषमें तल्लीनता यही कारण संसारके बढ़ानेवाले हैं। जो मोक्षका साधन करना चाहे उन्हें इन कारणोंसे बचना चाहिए।
परिग्रहपरिष्वङ्गाद्रागद्वेषश्च जायते ।
रागद्वेषौ महाबन्धः कर्मणां भवकारणम् ॥२५४॥ अन्वयार्थ-(परिग्रहपरिष्वंगात्) परिग्रहोंको स्वीकार करनेसे (रागद्वेषः च जायते) राग और द्वेष उत्पन्न होते ही हैं, (रागद्वेषौ कर्मणां महाबन्धः) राग-द्वेष ही कर्मोंके महान बंधके कारण है और (भवकारणम्) इन्हींसे संसार बढ़ता है।
भावार्थ-रागद्वेषको त्याग करके वीतरागभावमें रमण करनेसे आत्माका सच्चा हित हो सकता है। अतएव मोक्षकी जिसके भावना है उसको राग-द्वेषके उत्पन्न होनेके कारण धनधान्यादि परिग्रहोंका भी त्याग कर देना चाहिए, तब ही बन्ध न होकर पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा होगी । परिग्रह ध्यानकी सिद्धिमें बाधक है।
"सर्वसङ्गान् पिशुन कृत्वा ध्यानाग्निनाहुतिं क्षिपेत् ।
कर्माणि समिधश्चैव योगोऽयं सुमहाफलम् ॥२५५॥ अन्वयार्थ-(ध्यानाग्निना) ध्यानरूपी अग्निके द्वारा (कर्माणि समिधः च एव) कर्मोंको यज्ञमें होमनेकी लकडी मानकर जलावे और (सर्वसङ्गान् पिशुन कृत्वा आहुतिं क्षिपेत्) सर्व अंतरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रहोंको तिरस्करणीय मानकर उनकी आहुति डाले, (अयं योगः सुमहाफलं) यह योगाभ्यासका यज्ञ महा फलदायी है।
भावार्थ-पशुयज्ञ जब हिंसाकारी पाप-बंधकारक है तब परिग्रहरूपी शत्रुओंको होमनेका यज्ञ मोक्षका साधक है। ज्ञानीको उचित है कि आत्मध्यानकी अग्नि जलावे, उससे कर्मोंके ईंधनको जलावे तथा उसीमें परिग्रहकी आहुति देवे । इस यज्ञसे आत्मा शुद्ध हो जाता है। परिग्रहकी ममता छोडे बिना आत्मज्ञ नहीं हो सकता है।
राजसूयसहस्राणि अश्वमेधशतानि च ।
अनन्तभागतुल्यानि न स्युस्तेन कदाचन ॥२५६॥ अन्वयार्थ-(राजसूयसहस्राणि) हजारों राजसूय यज्ञ किये जावें (अश्वमेधपाठान्तर-१. सर्वसङ्गात् पसूनकृत्वा ।
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