Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 136
________________ ध्यानका साधन ११९ रखी जायेगी तब ही सुख शांति मिलेगी। इसलिए वे धैर्य रखते हैं । तपकी वृद्धि ज्ञानके द्वारा होती है। जितना शास्त्रोंका अधिक ज्ञान होगा उतना ही अधिक इच्छा-निरोधरूप तप हो सकेगा। इसलिए साधुजन परमागमका अभ्यास सदा करते रहते हैं। ध्यानका साधन ज्ञानदर्शनसम्पन्न आत्मा चैको ध्रुवो मम । शेषा भावाश्च मे बाह्या सर्वे संयोगलक्षणाः ॥२४९॥ अन्वयार्थ-साधुजन ध्यानके समय ऐसा विचारते हैं कि (मम आत्मा) मेरा आत्मा (एकः च) एक अकेला ही है, (ध्रुवः) अविनाशी है, (ज्ञानदर्शनसम्पन्नः) ज्ञानदर्शन स्वरूप है, (च शेषा भावाः) मेरे शुद्धात्माके भावको छोडकर अन्य जितने भी रागादि भाव हैं (सर्वे संयोगलक्षणाः) वे सर्व पुद्गलके संयोगसे होते हैं अतएव (मे बाह्याः) मेरे आत्मासे बाहर है। भावार्थ-ज्ञानीको तत्त्वका मनन करते हुए निश्चयनयसे अपने आत्मद्रव्यका जो स्वभाव है उसे ही बारबार विचारना चाहिए । यह आत्मद्रव्य अविनाशी है, एकरूप है, ज्ञातादृष्टा परम वीतराग और आनन्दमयी सिद्ध भगवानके समान है। चार गति सम्बन्धी सर्व पर्याय तथा सर्व रागद्वेषादि विभाव भाव आठ कर्मोंके संयोगोंसे जीवमें होते हैं, शुद्ध जीवमें नहीं पाये जाते हैं। अतएव वे सब मेरे नहीं हैं। न आठ कर्म ही मेरे हैं, न रागादि भावकर्म मेरे हैं, न शरीरादि नोकर्म मेरे हैं । मैं इनसे भिन्न स्वतन्त्र चैतन्य आत्मद्रव्य हूँ; और राग-कषायादि जो विभाव हैं, वे परके निमित्तसे आत्मामें होते हैं, किन्तु आत्माके नहीं हैं, औपाधिक भाव हैं । संयोगमूलजीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा । तस्मात् संयोगसम्बन्धं त्रिविधेन परित्यजेत् ॥२५०॥ अन्वयार्थ-ध्यानके समय योगी विचार करता है कि (संयोगमूल- जीवेन) अनादिकालसे पुद्गलके संयोगसे (दुःखपरम्परा प्राप्ता) मैंने दुःखोंको प्राप्त किया है (तस्मात्) इसलिए (त्रिविधेन) मन वचन काय तीनोंसे (संयोगसम्बन्धं परित्यजेत्) इस पुद्गलका संयोग छोड़ देना चाहिए । भावार्थ-योगी पुरुष सर्व गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि सांसारिक अवस्थाओंको कर्मोदयजनित जानकर उनसे बिलकुल ममता छोड़ देता है। एक अपने आत्माके द्रव्य-गुण-पर्यायको अपना मानकर ग्रहण कर लेता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178