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संतोषकी महिमा
११७ कम जो कुछ भी प्राप्त हो उसमें सन्तोष रक्खे । दान-धर्ममें द्रव्यको लगाकर सफल करे।
ईश्वरो नाम सन्तोषी यो न प्रार्थयते परम् ।
प्रार्थनां महतामत्र परं दारिद्र्यकारणम् ॥२४४॥ अन्वयार्थ-(यः संतोषी) जो संतोषी प्राणी (परं न प्रार्थयते) दूसरेसे याचना नहीं करता है (ईश्वरः) वही श्रेष्ठ पुरुष है, क्योंकि (अत्र) इस लोकमें (महतां प्रार्थनां) बड़े लोगोंसे याचना करना (परं दारिद्र्यकारणम्) घोर दारिद्र्यका कारण है।
भावार्थ-पुरुषको उचित है कि न्यायपूर्वक आजीविका करके जो कुछ कम या अधिक मिले उसीमें सन्तोष रक्खे । बहुत सादगीसे रहे, किसीसे पैसेकी याचना न करे। जो याचना करेगा वह दीन हो जायेगा । उसकी हीन वृत्ति होनेसे वह तीव्र लोभी बन जायेगा और उसका मन आजीविकामें नहीं लगेगा। तब वह कमा नहीं सकेगा । याचनासे पैसा मिलेगा तो वह दरिद्री हो जायेगा, तथा बहुत लोभसे पाप बाँधकर परलोकमें भी द्रव्यहीन होगा। अतएव जो याचना करता है वह लघु हो जाता है, जो याचना नहीं करता है वह लघु होनेपर भी बड़ा आदमी है ।
हृदयं दह्यतेऽत्यर्थं तृष्णाग्निपरितापितं ।
न शक्यं शमनं कर्तुं विना संतोषवारिणा ॥२४५॥ अन्वयार्थ-(तृष्णाग्निपरितापितं) तृष्णाकी आगसे पीडित (हृदयं) मन (अत्यर्थं दह्यते) अतिशय करके जला करता है, (संतोषवारिणा विना) संतोषरूपी जलके बिना (शमनं कर्तुं न शक्यं) उस जलनका शमन नहीं किया जा सकता।
भावार्थ-धनादि सामग्री मिलनेपर भी असंतोषीका मन कभी तृप्त नहीं हो पाता, किन्तु अधिक-अधिक तृष्णाके तापसे जला करता हैं । जब तक संतोषरूपी जलका सिंचन न किया जावे तब तक तृष्णाकी आग बुझ नहीं सकती है। अतएव जीवनको सुखी करना हो तो संतोषामृतका पान करके अपना धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ साधन करे, आलसी न बने ।
यैः 'संतोषामृतं पीतं निर्ममत्वेन वासितं ।
त्यक्तं तैर्मानसं दुःखं दुर्जनेनेव सौहृदं ॥२४६॥ अन्वयार्थ-(यैः) जिन्होंने (निर्ममत्वेन वासितं) ममतारहित भावसे (संतोषामृतं पीतं) संतोषरूपी अमृतका पान किया है (तैः) उन्होंने (मानसं दुःखं
पाठान्तर-१. सन्तोषोदकं ।
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