Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 124
________________ १०७ मोक्षमार्ग-पथिक संसारोद्विग्नचित्तानां निःश्रेयससुखैषिणाम् । सर्वसङ्गनिवृत्तानां धन्यं तेषां हि जीवितम् ॥२२४॥ अन्वयार्थ-(संसारोद्विग्नचित्तानां) जिनका चित्त इस दुःखमय संसारसे विरक्त है, (निःश्रेयससुखैषिणाम्) और जो मोक्षके अविनाशी सुखके अभिलाषी हैं (सर्वसंगनिवृत्तानां) तथा जो सर्व अंतरंग बहिरंग संगके त्यागी हैं (तेषां हि जीवितम् धन्यं) ऐसे ही महात्माओंका जीवन धन्य है, प्रशंसनीय है। भावार्थ-सर्वसे उत्तम पुरुषार्थ मोक्ष है। जिसकी सिद्धि प्राप्त कर लेनेपर प्राणी सर्व दुःखोंसे छूट जाता है और वह आत्मा अपनी स्वाभाविक अमूल्य आत्मसम्पदाको प्राप्त कर लेता है । इसका उपाय वे ही कर सकते हैं जो निग्रंथ साधु सर्व परिग्रहके त्यागी होकर संसारसे तीव्र वैरागी हैं तथा अतीन्द्रिय आनन्दको निरंतर पानेकी भावना रखते हैं । जो महानुभाव इस पुरुषार्थका साधन करते हैं उनका मानवजन्म वास्तवमें प्रशंसाके योग्य है । सप्तभीस्थानमुक्तानां यत्रास्तमितशायिनाम् । त्रिकालयोगयुक्तानां जीवितं सफलं भवेत् ॥२२५॥ अन्वयार्थ-(सप्तभीस्थानमुक्तानां) जो सात प्रकार भयोंके स्थानसे मुक्त हैं (यत्रास्तमितशायिनाम्) जहाँ भी सूर्य अस्त हो जावे वहीं ही विश्राम करनेवाले हैं (त्रिकालयोगयुक्तानां) व तीनों काल योग करनेवाले हैं (जीवितं सफलं भवेत) उन्हींका यह जीवन सफल होता है। भावार्थ-आरम्भ-परिग्रहसे विरत जैन श्रमण निर्भय होकर यत्रतत्र विचरण करते हैं। उन्हें कभी किसी प्रकारका कोई भय नहीं सताता । इस लोकमें भय सात बताये गये हैं-१ इहलोक भय-लोक क्या कहेंगे ऐसा भय, २ परलोक भय-परलोकमें कहीं दुःखमय गतिमें न चला जाऊँ, ३ रोग भय-कहीं रोग न आ जावे, ४ अरक्षा भय-मेरा कोई रक्षक नहीं है, क्या करूँ, ५ अगुप्ति भय-मेरी वस्तुएँ कहीं चली न जावे, ६ मरण भय-कहीं मुरण न, हो जावे, ७ अकस्मात् भय-कहीं कोई आपत्ति न आ जावे । इस प्रकारके भय वीतरागी समभावी साधुके नहीं होते । वे साधु परम दयावान होते हैं, दिवसमें ही प्रासुक जंतुरहित भूमिपर विहार करते हैं । जहाँपर भी सूर्य अस्त होनेको होता है वहीं रात्रिको ठहर जाते हैं और योगाभ्यास करते हैं। सबेरे दोपहर व शामको तो अवश्य ध्यानमें मग्न रहते हैं। इस प्रकार चारित्रका अनुष्ठान करनेवाले साधुओंका ही जीवन सफल है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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