________________
१०८
सारसमुच्चय आर्तरौद्रपरित्यागाद् धर्मशुक्लसमाश्रयात् ।
जीवः प्राप्नोति निर्वाणमनन्तसुखमच्युतं ॥२२६॥ अन्वयार्थ-(आर्तरौद्रपरित्यागात्) आर्त्त और रौद्रध्यानका त्याग करनेसे, (धर्मशुक्लसमाश्रयात्) धर्मध्यान, शुक्लध्यानका आश्रय करनेसे (जीवः) यह जीव (अनंतसुखं) अनन्तसुखसे पूर्ण (अच्युतं) और अविनाशी (निर्वाणं) स्वात्मस्थितिरूप मोक्षपदको (प्राप्नोति) प्राप्त कर लेता है। ____ भावार्थ-इस लोकमें परिणामोंकी स्थिरताकी अपेक्षासे ध्यान चार प्रकारका है। आर्त-रौद्रध्यान संसारके कारण हैं जबकि धर्म ध्यान और शुक्लध्यान मोक्षके कारण हैं। आर्तध्यानके चार प्रकार हैं। १. इष्टवियोगज-सभी पुत्रादि इष्ट पदार्थोंके वियोगसे होनेवाला । २ अनिष्टसंयोगज-कंटकादि अनिष्ट वस्तुसे होनेवाला । ३ पीडाजनित-रोग, पीडासे होनेवाला । ४ निदानज-आगामी भोगोंकी इच्छासे होनेवाला । यह चार प्रकारका दुष्टभावरूप आर्तध्यान होता है।
१ हिंसानन्दी-जीवोंकी हिंसामें आनंद माननेवाला । २ मृषानंदीअसत्यमें आनन्द माननेवाला । ३ चौर्यानंदी-चोरीमें आनन्द माननेवाला । ४ परिग्रहानंदी-परिग्रह-संचयमें आनन्द माननेवाला । ये चार प्रकारके दुष्ट भाव एवं रौद्रध्यान हैं। मुख्यरूपसे रौद्रध्यान नरकगतिका व आर्तध्यान तिर्यंचगतिका बंध करता है।
__ चार प्रकारका धर्मध्यान हैं-१ आज्ञाविचय-जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार जीवादि तत्त्वोंका विचार करना, २ अपायविचय-अपने और दूसरोंके रागादि भावोंका एवं कर्मोंका नाश कैसे हो यह विचार करना, ३ विपाकविचय-कर्मोंके शुभ व अशुभ फलका विचार कर समभाव रखना। ४ संस्थानविचय-लोकके आकार, स्वरूप या आत्माके स्वरूपका विचार करना । यह ध्यान चौथे अविरत सम्यग्दर्शन गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तविरत सातवें गुणस्थान तक होता है ।
चार प्रकारका शुक्लध्यान है-१ पृथक्त्ववितर्क-वीचार-जहाँ अबुद्धिपूर्वक योगसे अन्य योग, शब्दसे अन्य शब्द, ध्येय पदार्थसे अन्य ध्येय पर पलटना हो सके । २ एकत्ववितर्क अवीचार-जहाँ एक ही योग द्वारा एक ही शब्द द्वारा एक ही ध्येय पर जमा जावे । ३ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-जहाँ काययोगका सूक्ष्म हलनचलन रह जावे । ४ व्युपरतक्रियानिवृत्ति-जहाँ सर्व योगोंका निरोध हो जाये । आठवें गुणस्थानसे बारहवेंके प्रारंभ तक पहला
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org