Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 131
________________ ११४ सारसमुच्चय __भावार्थ-संसारकी धन-सम्पदा वारंवार इस प्राणीने पायी है । संसारके भोग वारंवार भोगे हैं । ये सर्व भोग-सम्पदा, खाकर वमन किये हुए भातके समान फिर भोगने योग्य नहीं हैं। जैसे बुद्धिमान वमन किये हुए भातको नहीं खाता है वैसे ही हमें धन-सम्पत्तिको ग्रहण करना योग्य नहीं है। यह संसारमें फँसानेवाली है। को वा वित्तं समादाय परलोकं गतः पुमान् । येन तष्णाग्निसंतप्तः कर्म बध्नाति दारुणम् ॥२३८॥ अन्वयार्थ-(कः वा पुमान) कौन ऐसा मानव है जो (वित्तं समादाय) धनको साथ लेकर (परलोकं गतः) परलोक गया है ? (येनं) जिस कारणसे (तृष्णाग्निसंतप्तः) यह जीव तृष्णाकी आगसे जलता हुआ (दारुणं कर्म बध्नाति) तीव्र कर्म बाँधता है। भावार्थ-अज्ञानी मानव रातदिन धनकी तृष्णामें फँसा हुआ अपनी सर्वशक्ति व अपना सर्व समय धनके कमानेमें ही खर्च करता रहता हैआत्मकल्याण नहीं करता है । उसके लिए आचार्य कहते हैं कि जिस धनके तीव्र लोभमें पड़कर तू न्याय-अन्यायका विचार छोडकर जैसे-तैसे धन कमाकर तीव्र पापकर्म बाँधता है वह धन इस शरीरके साथ रहेगा? परलोकमें किसीके साथ धन नहीं गया है । परलोकमें तो पाप-पुण्य ही साथ जायेगा । इसलिए धनके पीछे पाप बाँधकर परलोकमें कष्ट पाना मूर्खता है । अतएव संतोषपूर्वक न्यायसे धन कमाते हुए आत्महितके लिए पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए । धनके संचयमात्रसे कुछ लाभ न होगा । संतोषकी महिमा तृष्णान्धा नैव पश्यन्ति हितं वा यदि वाहितं । संतोषाजनमासाद्य पश्यन्ति सुधियो जनाः ॥२३९॥ अन्वयार्थ-(तृष्णान्धाः) जो मानव विषयभोगोंकी व धनकी तृष्णासे अन्धे हैं वे (हितं वा यदि वा अहितं नैव पश्यन्ति) न तो अपना हित विचारते हैं और न अहितको विचारते हैं । (सुधियः जनाः) बुद्धिमान मनुष्य (संतोषांजनं आसाद्य) संतोषरूपी अंजन आँखमें लगाकर (पश्यन्ति) अपना सच्चा हित देखते रहते हैं। भावार्थ-मानव वे ही हैं जो अपने आत्महितपर दृष्टिपात करें। बुद्धिमान मानवोंका यह प्रथम कर्त्तव्य होता है कि वे इस बातको जान ले कि मेरे आत्माका हित किसमें है और अहित किसमें हैं ? इसलिए वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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