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सारसमुच्चय जाता है। रागद्वेषसे कर्मोंका बन्ध होता है, कर्मोंके उदयसे दुःखके कारणोंकी और शरीरादिकी प्राप्ति होती है, फिर ममताभावसे लोभ होता है इस प्रकार संसारमें दुःखोंकी परिपाटी चला करती है । अतएव परिग्रहका होना संसारवर्द्धक है।
निर्ममत्वं परं तत्त्वं निर्ममत्वं परं सुखम् ।
निर्ममत्वं परं बीजं मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥२३४॥ अन्वयार्थ-(निमेमत्वं परं तत्त्वं) ममता रहित होना परम तत्त्व है, (निर्ममत्वं परं सुखं) ममतारहित होना परमसुख है, (निर्ममत्वं मोक्षस्य परं बीजं) ममतारहित भाव मोक्षका श्रेष्ठ बीज है (बुधैः कथितं) ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है।
भावार्थ-जिसने सर्व परपदार्थोंसे ममता छोड़ दी है, इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदिके भोग जिसे आकुलताकारक त्यागने योग्य भासते हैं, वह महात्मा मात्र एक अपने आत्मा व उसकी मुक्तिमें ही प्रेमी हो जाता है। अतएव वह सर्व ममत्वसे रहित होकर परमात्म-तत्त्वका भले प्रकार अनुभव कर सकता है । इस स्वात्मानुभवसे वह अतीन्द्रिय उत्तम सुखको भोगता है, यही मोक्षका सच्चा उपाय है । जब जगतकी चंचल वस्तुओंसे वैराग्य होगा तब ही निज आत्मिक आनन्दका अनुराग होगा। सुखका कारण एक निर्ममत्वभाव ही है। निर्मोही जीव ही मोक्षको प्राप्त कर सकता है ।
निर्ममत्वे सदा सौख्यं संसारस्थितिभेदनं ।
जायते परमोत्कृष्टमात्मनः संस्थिते सति ॥२३५॥ अन्वयार्थ-(निर्ममत्वे आत्मनः संस्थिते सति) सर्व परपदार्थोंसे ममता छोड़कर अपने आत्मामें स्थितिको प्राप्त कर लेनेपर (संसारस्थितिभेदन) संसारकी स्थितिको भेदनेवाला (परमोत्कृष्टं सौख्यं) परमोत्कृष्ट सुख (सदा जायते) सदा अनुभवमें आता है।
भावार्थ-जिसके भीतर ठहरना है, जिसका स्वाद लेना है, जिसमें सच्चा आनन्द है वह स्वयं आत्मा ही है। यह उपयोग जब तक आत्मासे बाहर रमण करता रहता है तब तक अपने आत्माका स्वाद नहीं आ सकता है। जब उपयोगको सर्व अनात्माओंसे और सर्व पर आत्माओंसेअरहंत सिद्धसे भी हटाकर-अपने ही आत्माके शुद्ध स्वभावमें श्रद्धापूर्वक जोडा जाता है, तन्मय किया जाता है-एकाग्र किया जाता है तब ही स्वात्मानुभव होता है और परमानंदका स्वाद आता है। यह परमानंद ही
पाठान्तर-१. ...च्छेदनम् ।
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