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सामानं विनयाभ्यासान होकर यह जीवक अंतमें तीसरा और
मोक्षमार्ग-पथिक
१०९ शुक्लध्यान रहता है, बारहवेंमें दूसरा होता है, तेरहवेंके अंतमें तीसरा और चौदहवें गुणस्थानमें चौथा शुक्लध्यान होकर यह जीव सिद्ध हो जाता है ।
आत्मानं विनयाभ्यासे विषयेषु पराङ्मुखः । साधयेत् स्वहितं प्राज्ञो ज्ञानाभ्यासरतो यतिः ॥२२७॥ अन्वयार्थ-(प्राज्ञः यतिः) बुद्धिमान भेदविज्ञानी यति (विषयेषु पराङ्मुखः) पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विमुख होता हुआ, (ज्ञानाभ्यासरतः) तत्त्वज्ञानके अभ्यासमें दत्तचित्त रहता हुआ (आत्मानं विनयाभ्यासे) और अपनेको चारित्रके अभ्यासमें लगाये रखता हुआ (स्वहितं साधयेत्) आत्माके हितका साधन करता है । ___ भावार्थ-आत्मोन्नतिके पथपर साधु तब ही चल सकता है जब वह अपने चित्तको इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त रहने व निरंतर तत्त्वज्ञान और आत्मज्ञानका अभ्यास करे। इसीलिए जिनागमका मनन करनेमें अपने समयको लगाये रहे तथा जिनोक्त चारित्रके साधनमें क्षणमात्र भी प्रमादी न हो।
यथा सङ्गपरित्यागस्तथा कर्मविमोचनम् ।
यथा च कर्मणां छेदस्तथाऽऽसन्नं परं पदम् ॥२२८॥ अन्वयार्थ-(यथासङ्गपरित्यागः) जैसे-जैसे परिग्रहका ममत्व छोड़ा जाता है (तथा कर्मविमोचनम्) वैसे-वैसे कर्मोंकी निर्जरा होती जाती है और (यथा च कर्मणां छेदः) जैसे-जैसे कर्मोंका क्षय होता है (तथा परं पदम् आसन्नं) वैसे-वैसे परमपद अर्थात् मोक्ष समीप आता जाता है ।
भावार्थ-यद्यपि बुद्धिपूर्वक चौदह प्रकारके अन्तरंग और दस प्रकारके बहिरंग परिग्रहका त्याग साधुपद धारते हुए किया जाता है तथापि जब तक कषायोंका उदय है तब तक परिग्रहका पूर्ण त्याग नहीं है। आत्मध्यानकी अग्नि बढ़नेसे जैसे-जैसे गुणस्थान चढ़ता है तथा 'जितनी उपशमित कषाया, तितनों वहाँ त्याग बताया' । जैसे-जैसे कषाय मंद होती जाती है, वीतरागता स्वयमेव और बढ़ती जाती है। जितनी अधिक वीतरागता बढ़ती जाती है उतनी ही अधिक कर्मोंकी निर्जरा होती है । जितनी जिनती अधिक कर्मोंकी निर्जरा होती है, आस्रवका निरोध भी उतना उतना अधिक होता है और मोक्षपद उतना ही निकट आता जाता है।
यत्परित्यज्य गन्तव्यं तत् स्वकीयं कथं भवेत् ।
इत्यालोच्य शरीरेऽपि 'विद्वान् तां च परित्यजेत् ॥२२९॥ अन्वयार्थ-(यत् परित्यज्य) जिस शरीरको छोड़कर (गन्तव्यं) जाना पड़ेगा पाठान्तर-१. विद्वानाशां।
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