Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 121
________________ १०४ सारसमुच्चय भावार्थ - महाव्रती निग्रंथ आचार्य, उपाध्याय, साधु संसारसे परम वैरागी, जितेन्द्रिय, तत्त्वके अभ्यासी, परीषहोंको जीतनेवाले, वीतरागी होते हुए भी ऐसे उत्तम ध्यानका अभ्यास करते हैं जिससे कर्मोंकी निर्जरा हो जाती है और आत्माकी शक्ति बढ़ती जाती है। वे ही सच्चे वीर योद्धा हैं । संसार ध्वंसिनीं चर्यां ये कुर्वन्ति सदा नराः । रागद्वेषहतिं कृत्वा ते यान्ति 'परमं पदम् ॥ २१६॥ अन्वयार्थ - (ये नराः) जो मनुष्य (सदा) हमेशा (संसार ध्वंसिनीं चर्यां कुर्वंति) संसारको नाश करनेके लिए आचरण पालते हैं (ते) वे ( रागद्वेषहतिं कृत्वा) रागद्वेषको नाश करके ( परमं पदम् यान्ति) परम पदको प्राप्त करते हैं । भावार्थ - सम्यग्दृष्टि निर्ग्रथ साधु संसारको दुःखोंका सागर समझकर इससे पार होनेके लिए मुनिपदके चारित्रको भले प्रकार पालते हैं । व्यवहारचारित्रके द्वारा निश्चयचारित्रको पालते हुए, स्वात्मानुभवका आनन्द लेते हुए, परम समताभावमें जमते हुए रागद्वेषका क्षय कर देते हैं । वीतरागताका प्रकट होना ही परम पदका लाभ है । मलैस्तु रहिता धीरा मलदिग्ध्वाङ्गयष्टयः । सब्रह्मचारिणो नित्यं ज्ञानाभ्यासं सिषेविरे ॥ २१७॥ अन्वयार्थ - ( मलैस्तु रहिताः ) जो रागादि मलोंसे रहित हो जाते हैं ( मलदिग्ध्वांगयष्टयः) परन्तु स्नानादिके त्यागसे शरीरके अंग- उपांग मलसे लिप्त दिखाई देते हैं तथापि (सब्रह्मचारिणः) सच्चे ब्रह्मचारी होते हैं, ऐसे योगी ही (नित्यं ज्ञानाभ्यासं सिषेविरे ) सदा ज्ञानका अभ्यास करते रहते हैं । भावार्थ-निर्ग्रथ साधु शरीरके मलिनपनेकी कुछ भी परवाह न करते हुए अपने व्यवहार व निश्चय चारित्रको अतिचार रहित पालते हैं, अन्तरङ्गमें स्वरूपकी भावना करते हैं, आत्मध्यानमें लीन होते हैं। जब उपयोग ध्यानमें नहीं लगता है तब शास्त्रोंका मनन करते हैं । निरंतर ज्ञानानन्दका रसपान करना ही उनका ध्येय होता है । ज्ञानभावनया सिक्ता निभृतेनान्तरात्मनः । अप्रमत्तं गुणं प्राप्य लभन्ते हितमात्मनः ॥२१८॥ अन्वयार्थ - (अन्तरात्मनः ) सम्यग्दृष्टि महात्मा साधु ( ज्ञानभावनया सिक्ता ) आत्मज्ञानकी भावनासे सींचे हुए एवं (निभृतेन) दृढता रखते हुए ( अप्रमत्तं गुणं पाठान्तर - १. परमां गतिम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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