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सारसमुच्चय परीषहजये शूराः शूराश्चेन्द्रियनिग्रहे ।
कषायविजये शूरास्ते शूरा गदिता बुधैः॥२१०॥ अन्वयार्थ-(परीषहजये शूराः) जो क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहोंके जीतनेमें वीर हैं (च इन्द्रियनिग्रहे शराः) और जो पाँचों इन्द्रियोंको वश रखनेमें वीर हैं (कषायविजये शूराः) और जो क्रोधादि कषायोंके जीतनेमें योद्धा है (ते शूराः) वे ही सच्चे वीर (बुधः गदिताः) बुद्धिमानोंके द्वारा कहे गए हैं ।
भावार्थ-इस संसार में संसारी प्राणियोंके मुख्य वैरी विषय तथा कषाय हैं, सहनशीलता रखना बड़ा ही दुर्लभ है । आपत्तियोंके आनेपर आकुलता न होना बड़ा ही साहसका काम है । जो महापुरुष संकटोंके पडनेपर भी वज्रके समान धीरवीर बने रहते हैं तथा उत्तम क्षमादि दशलक्षणरूप धर्मके प्रभावसे या व्यवहार रत्नत्रयके द्वारा निश्चय रत्नत्रयमयी आत्मानुभवका अभ्यास करते हुए विषय-कषायोंको जीत लेते हैं, वे ही सच्चे वीर हैं, पूज्यनीय हैं, वंदनीय हैं।
नादत्तेऽभिनवं कर्म सच्चारित्रनिविष्टधीः ।
पुराणं निर्जयेद्वाढं विशुद्धध्यानसङ्गतः ॥२११॥ अन्वयार्थ-(सचारित्रनिविष्टधीः) सम्यक्चारित्रके पालनेमें जिसकी बुद्धि लवलीन हैं वह ज्ञानी (विशुद्धध्यानसङ्गतः) निर्मल वीतराग ध्यानकी संगतिसे (अभिनवं कर्म न आदत्ते) नवीन कर्मोंका आस्रव नहीं करता है (पुराणं बाढं निर्जयेत्) व पुराने कर्मोंकी अत्यधिक निर्जरा करता है।
भावार्थ-व्यवहार चारित्रके द्वारा स्वरूपाचरणरूप निश्चय चारित्र या आत्मरमणरूप ध्यान ही वास्तवमें मोक्षका मार्ग है । जिस उपायसे नवीन कर्मोंका संवर हो और पूर्वबद्ध कर्मोंकी अत्यधिक निर्जरा हो वही मुक्तिका उपाय है। अतएव तत्त्वज्ञानी जीव पूर्ण समताभावके साथ प्रयत्नपूर्वक आत्मध्यानका दृढतासे अभ्यास करते हुए आत्मशुद्धि करते चले जाते हैं। ऐसे धीर वीर पुरुष धन्य हैं।
संसारावासनिर्वृत्ताः शिवसौख्यसमुत्सुकाः ।।
सद्भिस्ते गदिताः प्राज्ञाः शेषाः 'स्वार्थस्य वञ्चकाः ॥२१२॥
अन्वयार्थ-(संसारावासनिर्वृत्ताः) जो संसारके भ्रमणसे उदास हैं (शिवसौख्यसमुत्सुकाः) तथा कल्याणमय मोक्षके सुखके लिए अत्यन्त उत्साही हैं (ते प्राज्ञाः) वे ही बुद्धिमान पंडित (सद्भिः) साधुओंके द्वारा (गदिताः) कहे गये
पाठान्तर-१. शास्त्रस्य ।
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