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चार गतिके दुःख-सुख
७३ अन्वयार्थ-(तप्ततैलिकभल्लीषु) गरम गरम तेलके कढाहोंमें (पच्यमानेन) पकाये जानेसे (यत् परमं दुःखं) जो महान दुःख (त्वया संप्राप्त) तूने प्राप्त किया है (तत् वक्तुं नैव पार्यते) उन दुःखोंको कहा नहीं जा सकता है ।
भावार्थ-नरकोंके दुःख बड़े भयंकर हैं। गर्म गर्म तेलके कढाहोंमें नारकीको पटक देते हैं। उनमें पचते हुए नारकीको भयानक कष्ट भोगने पडते हैं। उन दुःखोंका हमारे जैसे मानव कैसे वर्णन कर सकते हैं ? उनका स्मरण इस जीवको नहीं हैं। यदि वहाँके दुःखोंका स्मरण हो जावे तो प्राणीको असहनीय दुःख होता है।
नानायंत्रेषु रौद्रेषु पीड्यमानेन वह्निना ।
दुःसहा वेदना प्राप्ता पूर्वकर्मनियोगतः॥१४४॥ अन्वयार्थ-(पूर्वकर्मनियोगतः) पूर्वमें बाँधे हुए कर्मोंके उदयसे (रौद्रेषु नानायंत्रेषु) भयानक नाना प्रकारके यंत्रोंमें (वह्निना पीड्यमानेन) अग्निके भयानक आतापसे कष्ट पाकर (दुःसहा वेदना प्राप्ता) दुःसह वेदना तुझे प्राप्त हुई है।
भावार्थ-तीव्र पापकर्मके उदयसे नरकमें नारकीको बड़े-बड़े गर्म यंत्रोंमें पेलते हैं तब आगकी गर्मीसे उसको महान घोर कष्ट होता है जिसको कोई संसारी कह नहीं सकता।
विण्मूत्रपूरिते भीमे पूतिश्लेष्मवसाकुले ।
भूयो गर्भगृहे मातुर्दैवाद्यातोऽसि संस्थितिम् ॥१४५॥ अन्वयार्थ-(देवात्) कर्मोंके उदयसे (भूयः) फिर इस जीवको (विष्मूत्रपूरिते) विष्टा और मूत्रसे भरे हुए (भीमे) भयानक (पूतिश्लेष्मवसाकुले) पीव कफ चरबीसे पूर्ण (मातुः) माताके (गर्भगृहे) गर्भमें (संस्थितिम् यातः असि) ठहरकर समय बिताना पडता है।
भावार्थ-इस भयानक संसारमें भ्रमण करते हुए कभी यदि इस जीवने मंद कषायसे मानव-आयु बाँध ली तो यह मनुष्य-गतिमें आकर माताके गर्भगृहमें नौ मासतक उल्टा रहता है। वह गर्भगृह नरकके समान है, मलमूत्रसे भरा हुआ है, पीव, कफ, चरबीसे पूर्ण है, कृमियोंसे भी भरा है। ऐसे स्थानमें इस जीवको उल्टा टॅगना पडता है। माताके आहारसे इसका पालन हो जाता है । मानवगतिमें गर्भमें नौ मास रहनेका बड़ा भारी कष्ट होता है। फिर जन्मते हुए घोर कष्ट होता है। मानवगतिके भी दुःख भयानक हैं। इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग तथा तृष्णाके दुःख अधिकांश जीवोंको होते हैं । इसके सिवाय रोगादिके, दरिद्रताके और इच्छित वस्तुको
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