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सारसमुच्चय चार गतिके दुःख-सुख अनेकशस्त्वया प्राप्ता विविधा भोगसम्पदः ।
अप्सरागणसंकीर्णे दिवि देवविराजिते ॥१४१॥ अन्वयार्थ-(अप्सरागणसंकीर्णे) देवियोंसे भरे हुए और (देव-विराजिते) देवोंसे शोभायमान (दिवि) स्वर्गमें (त्वया) तूने (अनेकशः) अनेक बार (विविधा) नाना प्रकारकी (भोगसम्पदः) भोग सम्पदाएँ (प्राप्ताः) पाईं हैं।
भावार्थ-इस संसारमें भ्रमण करते हुए हे आत्मन् ! तूने पुण्यके उदयसे जब देवगति पाई और स्वर्गमें पैदा हुआ तब तेरी सेवा अनेक देवियोंने की और अनेक देव हाजरीमें खड़े रहे । तूने स्वर्ग सरीखे मनोज्ञ भोगोंको बारबार भोगा है परन्तु तेरी तृप्ति नहीं हुई । तू अब तक तृष्णातुर ही बना रहा । स्वर्गमें इन्द्रियोंके अपार सुख हैं उनको भी इस जीवने भोगा है परन्तु शान्ति नहीं मिली, प्रत्युत तृष्णामें ही वृद्धि हुई है।
पुनश्च नरके रौद्रे रौरवेऽत्यन्तभीतिदे ।
नानाप्रकारदुःखोघैः संस्थितोऽसि विधेर्वशात् ॥१४२॥ अन्वयार्थ-(पुनः च) तथा ऐसे ही (अत्यन्त भीतिदे) अतिशय भयानक (रौरवे रौद्रे नरके) रौरव नामके कष्टप्रद नरकमें (विधेः वशात्) तू कर्मोंके वश (नानाप्रकारदुःखोघैः) नाना प्रकारके दुःखसमूहोंसे घिरा हुआ (संस्थितः असि) रह रहा है।
भावार्थ-जब तूने अधिक पाप बाँधे तब तू नरकमें दीर्घकाल तक रहकर नाना प्रकारके भयानक दुःखोंके बीचमें पड़ा रहा। वहाँ परस्पर नारकी एक दूसरेको कष्ट देते हैं। तीसरे नरक तक असुरकुमार जातिके देव जाकर नारकियोंको लड़ाते हैं। वहाँ भूमि बड़ी दुर्गंधमय है, पवन कठोर है, पानी खारा है, वृक्ष काँटेदार पत्रोंको रखते हैं। नरकमें कोई सामान सुखप्रद नहीं हैं । नरकोंके जो दुःख शास्त्रमें कहे हैं उनको सुननेसे ही मन काँप जाता है । जिसको भोगना पडता है उसको वही जानता है या केवली भगवान जानते हैं । हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी जीव प्रायः नरकमें जाते हैं। इसलिए रौद्रध्यानसे बचना चाहिए। यह नरकगतिका कारण है।
तप्ततैलिकभल्लीषु पच्यमानेन यत्त्वया । संप्राप्तं परमं दुःखं तद्वक्तुं नैव पार्यते ॥१४३॥
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