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सारसमुच्चय न पाने आदिके बड़े-बड़े कष्ट होते हैं, जिनका कहना भी शक्य नहीं हैं।
तिर्यग्गतौ च यद् दुःखं प्राप्तं छेदनभेदनैः ।
न शक्तस्तत् पुमान् वक्तुं जिह्वाकोटिशतैरपि ॥१४६॥ अन्वयार्थ-(च तिर्यग्गतौ) और तिर्यंचगतिमें (छेदनभेदनैः) छेदन भेदनके द्वारा (यत् दुखं प्राप्त) जो दुःख उठाये हैं (तत्) उनको (पुमान्) कोई मनुष्य (जिह्वाकोटिशतैः अपि) करोडों जिह्वाओंके द्वारा भी (वक्तुं न शक्तः) कहनेको समर्थ नहीं है।
भावार्थ-पशुगतिमें एकेन्द्रिय स्थावरोंके छेदनभेदनके दुःख विचारमें भी नहीं आ सकते, पराधीनपनेसे उनको सहने पडते हैं । विकलत्रय जीव भी गर्मी, सर्दी, भूख, प्यासके अनेक कष्ट सहते हैं, मानवोंके कार्य और अनेक आरम्भसे बड़े कष्टसे प्राण देते हैं। पञ्चेन्द्रिय सैनी पशु मारणताडन, अधिक भार लादना, कठोर वचन-प्रहारके और सबलों द्वारा सताये जानेके आदि महान दुःख पाते हैं ।
संसृतौ नास्ति तत्सौख्यं यन्न प्राप्तमनेकधा ।
देवमानवतिर्यक्षु भ्रमता जन्तुनाऽनिशं ॥१४७॥ अन्वयार्थ-(तत् सौख्यं) ऐसा कोई सुख (संसृतौ) इस संसारमें (नास्ति) नहीं है (यत् अनेकधा) जो अनेक तरहसे (जन्तुना) इस जीवने (अनिशं) रातदिन (देवमानवतिर्यक्षु भ्रमता) देव, मनुष्य और तिर्यंच गतियोंमें भ्रमते हुए (न प्राप्त) न पाया हो। ____भावार्थ-नरकगतिमें तो दुःख ही दुःख हैं । पशु, मनुष्य व देवगतिमें कुछ सांसारिक सुख है, उस सुखको इस जीवने बारबार इन गतियोंमें जन्म ले ले कर पाया है तो भी उस सुखसे इसकी तृप्ति नहीं हुई।
चतुर्गतिनिबन्धेऽस्मिन् संसारेऽत्यन्तभीतिदे ।
सुखदुःखान्यवाप्तानि भ्रमता विधियोगतः ॥१४८॥ अन्वयार्थ-(अस्मिन्) इस (अत्यन्तभीतिदे) महान भयदायी (चतुर्गतिनिबन्धे संसारे) चारगतिमयी संसारमें (विधियोगतः) कर्मोंके उदयसे (भ्रमता) भ्रमण करते हुए (सुखदुःखानि) इस जीवने अनेक सुख व दुःख (अवाप्तानि) पाये हैं।
भावार्थ-यह संसार भ्रमणमय है । कर्मोंके उदयसे यह जीव बारबार नरक, पशु, मानव, देव इन चार गतियोंमें जाकर अच्छी या बुरी अनेक पर्यायोंको धारण कर चुका है। निगोदसे लेकर नवग्रैवेयक तकके शरीर
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