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चारित्रकी आवश्यकता
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चारित्रकी आवश्यकता यत्त्वयोपार्जितं कर्म भवकोटिषु पुष्कलं ।
तच्छेत्तुं चेन शक्तोऽसि गतं ते जन्म निष्फलम् ॥१८७॥ अन्वयार्थ-(त्वया) तूने (भवकोटिषु) करोड़ों भवोंमें (यत्) जो (पुष्कलं) बहुत (कर्म उपार्जितं) कर्म बाँधे हैं, (तत् छेत्तुं) उनके नाश करनेके लिए (चेत् न शक्तः असि) यदि तू सामर्थ्य न प्रकट करेगा (ते जन्म निष्फलं गतं) तो तेरा जन्म निष्फल ही बीत गया ऐसा समझा जायेगा ।
भावार्थ-मानव-जन्म और जैनतत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर यदि तू संसारके जन्मोंमें दुःख देनेवाले कर्मोंको नाश करनेका उद्यम न करेगा और प्रमादसे अपने अमूल्य समयको विषयभोगोंमें व मोहके प्रपंचमें बिता देगा तो फिर ऐसा अवसर मिलना कठिन है कि जब ऐसा संयम, तप और ध्यान कर सके और जिससे कर्मोंका क्षय हो सके । देव तथा नारकी संयम पाल नहीं सकते, पशुगतिमें मात्र श्रावकके व्रत हैं । साधुके चारित्र पालनका हेतु एक मानव देह है। अतएव प्रमादी न होकर पुरुषार्थ करके भव-भवके बाँधे कर्मोंके नाशके लिए सम्यग्दर्शनसहित चारित्रका आराधन कर, जिससे तू वर्तमानमें भी सुखी रहे और भविष्यमें भी आत्महित कर सके ।
अज्ञानी क्षिपयेत्कर्म यजन्मशतकोटिभिः ।
तज्ज्ञानी तु 'त्रिगुप्तात्मा निहन्त्यन्तर्मुहूर्ततः॥१८८॥ अन्वयार्थ-(अज्ञानी) मिथ्यात्वसहित ज्ञानधारी आत्मा (यत् कर्म) जितने कर्मोंको (जन्मशतकोटिभिः) करोडों जन्मोंके द्वारा (क्षिपयेत्) नाश करेगा (तत्) उतने कर्मोंको (ज्ञानी तु) सम्यग्ज्ञानी तो (त्रिगुप्तात्मा) मन वचन कायकी गुप्तिमें ठहरकर (अंतर्मुहूर्ततः) एक अंतर्मुहूर्तमें (निहन्ति) नाश कर डालता है।
भावार्थ-जिसको आत्मतत्त्वका ज्ञान नहीं है ऐसा अज्ञानी सविपाक निर्जरासे अपने समयपर उदय होकर खिरनेवाले कर्मोंको करोड़ों भवोंमें खिराएगा, फल भोग-भोग करके दूर करेगा, उतने कर्मोंकी वर्गणाओंको सम्यग्ज्ञानी अपने आत्मज्ञान, आत्मप्रतीति व वैराग्यभावकी शक्तिसे मनवचनकायको रोक कर ध्यानमें तन्मय होनेपर एक अंतर्मुहूर्तमें क्षय कर डालेगा। ४८ मिनिटके भीतरको अंतर्मुहूर्त कहते हैं । इतनी देर यदि किसी महात्माको धारावाही लगातार आत्मध्यानमें एकाग्रता हो जावे तो उसकी
पाठान्तर-१. त्रिगुप्तो।
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