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वैराग्यकी आवश्यकता
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(विषयामिषलोभिनः) पाँच इन्द्रियोंके विषयरूपी मांसके लोभी ( नरशार्दूलाः) नरसिंह होने पर भी (बान्धवबन्धनैः) बन्धुजनों और परिवारके स्नेह द्वारा ( बद्धाः ) बँधे हुए (सीदंति) दुःख उठाते रहते हैं।
भावार्थ - महान पराक्रमी पुरुष भी जो इन्द्रियोंके विषयोंके लोलुपी होते हैं वे गृहस्थवासमें रहते हुए रातदिन विषयोंके भोगमें लगे रहते हैं । इच्छित भोगोंके न पाने पर घबड़ाते हैं । इच्छित भोगोंके वियोगपर दुःखी होते हैं । शरीरमें रोगादि होने पर दुःखी होते हैं । धनकी आशामें कष्ट पाते I जितना-जितना विषयभोग किया जाता है उतना उतना तृष्णाका दाह बढ़ता जाता है । दाहसे जलते हुए कष्टमें जीवन बिताते हैं । फिर तीव्र रागद्वेषके कारण अशुभ कर्म बाँधकर दुर्गतिमें जाकर कष्ट पाते हैं । वास्तवमें वे ही सुखी होते हैं जो विषयरूपी मांसके त्यागी हैं और अतीन्द्रिय सुखरूपी अमृतके प्रेमी हैं । गृहस्थीमें स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई, बंधुओंके स्नेहमें रात-दिन संकल्प-विकल्पोंसे प्राणी आकुलित रहते हैं ।
गर्भवासेऽपि यदुःखं प्राप्तमत्रैव जन्मनि । " अधुना विस्मृतं केन येनात्मानं न बुध्यसे ॥ १८४ ॥
अन्वयार्थ - (अत्रैव जन्मनि ) इस ही जन्ममें (गर्भवासे अपि) गर्भके भीतर रहते हुए भी ( यत् दुःखं प्राप्तं ) जो दुःख तूने उठाए हैं (अधुना केन विस्मृतं) अब तू क्यों उनको भूल गया है (येन ) जिससे ( आत्मानं न बुध्यसे ) तू अपने आत्माको नहीं पहचानता ?
भावार्थ - इस ही जन्मके दुःखोंको जो इसने नौ मास गर्भमें रहकर उठाये हैं, यदि स्मरण किया जावे तो प्राणीको जन्मसे घृणा हो जावे । गर्भमें प्राणीको उल्टे टँगे रहकर महान मलिन स्थानमें दिन पूरे करने पडते हैं । माताके झूठे रससे शरीर बढ़ता है । फिर बड़े कष्टसे गर्भसे निकलता है । गर्भवास नरकवासके समान कष्टप्रद है । यह प्राणी पीछे गृहस्थके मोहमें पड़कर उस गर्भके दुःखको भूले हुए रहता हैं । यदि कोई स्मरण करे तो इसके ये भाव होने चाहिएँ कि मुझे इस जन्म मरणसे अपनेको बचाना चाहिए । अतएव अपने आत्माके सच्चे स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिससे आत्मिक धर्मका लाभ हो; क्योंकि आत्मिक धर्म ही वह छैनी है जो कर्मकी बेड़ियोंको काट देती है ।
पाठान्तर - १. अधुना किं विस्मृतं तेन ।
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