Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 106
________________ वैराग्यकी आवश्यकता जो कोई धर्मकी ओर लक्ष्य नहीं देता है और पापकर्मको बढ़ाता ही रहता है, उसका बाँधा हुआ तीव्र पापकर्म जब उदयमें आता है तब प्राणीको बहुत कष्ट होता है । तब उसके मनमें पश्चात्ताप भी होता है । सुखभावकृता मूढाः किं न कुर्वन्ति मानवाः । येन सन्तापमायान्ति जन्मकोटिशतेष्वपि ॥१७९॥ अन्वयार्थ-(सुखभावकृताः मूढाः मानवाः) सुख पानेके भावसे प्रेरित होकर मूर्ख मनुष्य (किं न कुर्वन्ति) क्या क्या पाप नहीं कर डालते हैं (येन) जिस पापसे (जन्मकोटिशतेषु अपि) करोडों जन्मोंमें भी (सन्तापं आयान्ति) दुःखको पाते हैं ? भावार्थ-इन्द्रियोंके सुखोंकी अतितृष्णाके वश प्राणी हिंसादि पापोंको व जूआ खेलना, मांसाहार, मद्यपान, चोरी, शिकार, वेश्या और परस्त्रीसेवन आदि पापको बेखटके कर डालता है। और भी बड़े बड़े पाप कर डालता है-गाँवमें आग लगा देता है, अनाथोंका और विधवाओंका धन हड़प कर जाता है, देवद्रव्यको चुरा लेता है, यज्ञके नामसे देवी-देवताओंके नामपर घोर प्राणी हिंसा कर लेता है, झूठे सिक्के चला देता है, आदि । इन पापोंसे दीर्घ स्थिति पड़नेवाले व तीव्र अनुभागवाले कर्मोंको बाँध लेता है, उनका उदय करोड़ों जन्मोंमें नरक-तिर्यंचादि गतियोंमें जब मिलता है तब प्राणीको घोर कष्ट होता है। परं च वञ्चयामीति यो हि मायां प्रयुज्यते । ___ इहामुत्र च लोके वै तैरात्मा वञ्चितः सदा ॥१८०॥ अन्वयार्थ-(परं च वञ्चयामि इति) दूसरेको ठग लूँगा ऐसा विचार कर (यः हि) जो कोई (मायां) मायाचार (प्रयुज्यते)का उपाय करते हैं (तैः) उन लोगोंने (लोके च इह अमुत्र) इस लोक तथा परलोक दोनोंमें (सदा) सदा ही (आत्मा वञ्चितः) अपने आपको ठगा है। भावार्थ-जो कोई सांसारिक पदार्थों की इच्छा करके दूसरोंके द्रव्यादिको धोखा देकर लेनेके लिए मायाचार करते हैं, अनेक प्रकारके प्रपंचोंसे दूसरोंको ठगते हैं वे अपने आत्माको ठगते हैं। वे यहाँ भी मलिन भावगे आकुलित रहते हैं। दूसरोंको ठगनेके भावसे उनमें हिंसात्मक भाव रहता है, तथा उनका मायाचार जब प्रकट हो जाता है तब वे अविश्वास व निन्दा के पात्र होते हैं, और तीव्र पापसे नरक-तिर्यंचगति बाँधकर कुगतिमें पड़कर दु:ख उठाते हैं। उनका भव-भव बिगड़ जाता है। वे अपने आत्माका महान अपराध करते हैं। उसे निम्न अवस्थामें ले जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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