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सारसमुच्चय भावार्थ-उत्तम पात्र वे ही हैं जो साधु कष्टोंके पानेपर भी क्रोध न करके क्षमा व धैर्य धारण करते हैं तथा जिनके मनमें कभी अशुभ भावना नहीं होती है। वे सदा परोपकारमें ही भाव रखते हैं तथा जो निज आत्मिक तत्त्वोंको परसे भिन्न सदा भाते रहते हैं ऐसे आत्मज्ञानी साधुको भक्तिपूर्वक दान करना धर्मनिष्ठ दातारोंका दैनिक कर्तव्य है। गृहस्थोंको दान अवश्य करना चाहिए । उत्तम पात्र न मिले तो मध्यम पात्र श्रावकोंको या जघन्य पात्र श्रद्धावान जैनियोंको भक्तिसे दान देना चाहिए। करुणा भावसे हरएक मानव व पशु-प्राणीके कष्टको निवारण करने हेतु अपनी शक्तिप्रमाण त्याग करें। दान बड़ा ही उपकारी है।
धृतिभावनया दुःखं 'सत्यभावनया भवम् ।
ज्ञानभावनया कर्म नाशयन्ति न संशयः ॥१९९॥ अन्वयार्थ-ज्ञानी सम्यग्दृष्टि महात्मा (दुःखं) दुःखको या कष्टको या पीडाको (धृतिभावनया) धैर्य व सहनशीलताकी भावनासे, (भवम्) इस जन्ममरणको (सत्यभावनया) सत्य तत्त्वज्ञानकी भावनासे और (कर्म) कर्मोंको (ज्ञानभावनया) आत्मज्ञानके मननसे (नाशयन्ति) नाश कर डालते हैं (न संशयः) इसमें कोई शंका नहीं है। __भावार्थ-पूर्व कर्मोंके उदयसे आये हुए दुःखको समतासे व धैर्यसे भोग लेना उचित है तब पुरातन कर्म झड़ जायेगा और नवीन कर्मका बंध नहीं होगा । अथवा यदि होगा भी तो अति अल्प होगा । संसारका नाश कर्मों के नाशसे होगा, कर्मोंका क्षय वीतरागभावसे होगा, वीतरागभाव सत्य जो निश्चय मोक्षमार्ग आत्मानुभवरूप है उसके अभ्याससे होगा । कर्मोंके क्षयमें मुख्य कारण सम्यग्ज्ञानमें उपयुक्त होना है। इसलिए इस बातमें कुछ भी संशय न लाकर आत्मकल्याणार्थियोंको उचित है कि यथार्थ ज्ञानाभ्यास, आत्मप्रतीति तथा चारित्रानुष्ठानसे अपने आत्माका उद्धार करें ।
३आग्रहो हि शमे येषां विग्रहं कर्मशत्रुभिः ।
विषयेषु निरासङ्गास्ते पात्रं यतिसत्तमाः॥२००॥ अन्वयार्थ-(येषां) जिनका (आग्रहः शमे हि) यह आग्रह है अथवा यह प्रतिज्ञा है कि हम शांत भावमें रहेंगे (कर्मशत्रुभिः विग्रह) वे कर्मरूपी शत्रुओंसे युद्ध करते हैं (विषयेषु निरासङ्गाः) और जो इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त नहीं हैं किन्तु उनसे विरक्त हैं (ते यतिसत्तमाः पात्रं) वे यतियोंमें मुख्य उत्तम पात्र हैं।
पाठान्तर-१. सत्त्व । २. भयम् । ३. अग्रहो ।
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