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सारसमुच्चय
धर्मस्य संचये यत्नं कर्मणां च परिक्षये । साधूनां चेष्टितं चित्तं सर्वपापप्रणाशनम् ॥१९३॥
अन्वयार्थ - (साधूनां ) साधुओंका (यत्नं ) उद्योग (धर्मस्य संचये ) धर्मके संग्रहमें तथा (कर्मणां च परिक्षये) कर्मोंके क्षय करनेमें होता है तथा ( चित्तं चेष्टितं सर्वपापप्रणाशनम्) उनका चित्त ऐसे चारित्रके पालनमें होता है जिससे सर्व पापोंका नाश हो जाता है ।
भावार्थ - आत्मशुद्धिके लिए साधुओंको उचित है कि सर्व पापबंधकारक भावोंसे अपने मनको शुद्ध करें तथा वीतराग भावके भीतर वर्तनेका विशेष यत्न करें, जिससे कर्मोंका क्षय हो जाये । जब आत्मध्यानमें मन न लगे तो शास्त्र - मनन, धर्मोपदेश आदि शुभ कार्योंको करें, जिससे पुण्यका संचय हो, और आत्मा अपने अनुष्ठानसे पीछे न रहे ।
मानस्तंभं दृढं भंक्त्वा लोभाद्रिं च विदार्य वै । मायावल्लीं समुत्पाट्य क्रोधशत्रुं निहन्य च ॥ १९४॥
यथाख्यातं हितं प्राप्य चारित्रं ध्यानतत्परः । कर्मणां प्रक्षयं कृत्वा प्राप्नोति परमं पदम् ॥ १९५॥
अन्वयार्थ - (दृढं मानस्तंभं भक्त्वा ) सुदृढ मानके खंभेको तोड़ कर और (लोभाद्रिं च विदार्य वै) लोभरूपी पर्वतका खंडन करके ( मायावल्लीं समुत्पाट्य ) मायाचारकी बेलको उखाड़ करके ( क्रोधशत्रुं निहन्य च ) तथा क्रोधरूपी शत्रुको मार करके (ध्यानतत्परः) ध्यानमें लीन साधु (हितं यथाख्यात चारित्रं प्राप्य) हितकारी यथाख्यात चारित्रको प्राप्त करके (कर्मणां प्रक्षयं कृत्वा) कर्मोंका क्षय करके (परमं पदम् प्राप्नोति ) परमपद मोक्षको पा लेते हैं ।
भावार्थ- मोक्षका लाभ तब ही होगा जब कर्मोंका क्षय होगा । कर्मोंका क्षय तब ही होगा जब सर्व मोहका क्षय करके यथाख्यात वीतरागचारित्रको प्राप्त किया जायेगा । वीतराग चारित्रका प्रकाश तब ही होगा जब क्रोध, मान, माया, लोभ चारों ही कषायोंका क्षय किया जायेगा । कषायोंसे ही कर्मोंका बन्ध होता है अतएव उन्हींके नाशसे आत्माका सच्चा हित होता है । कषायोंके क्षयके लिए आत्मप्रतीतिरूप सम्यग्दर्शनके साथ स्वरूपाचरण चारित्रके ध्यानका अभ्यास करना चाहिए। ध्यानकी सहायताके लिए उपवास, ऊनोदर तप आदिका साधन करना चाहिए ।
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