Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 103
________________ सारसमुच्चय विशुद्धपरिणामेन शान्तिर्भवति सर्वतः । संक्लिष्टेन तु चित्तेन नास्ति शान्तिर्भवेष्वपि ॥१७२॥ अन्वयार्थ-(विशुद्धपरिणामेन) निर्मल भावोंसे (सर्वतः शान्तिः भवति) सर्व तरफसे शान्ति रहती है (संक्लिष्टेन तु चित्तेन) परन्तु संक्लेश परिणामोंसे (भवेषु अपि) भवभवमें भी (शान्तिः नास्ति) शान्ति नहीं मिल सकती हैं। . __ भावार्थ-निर्मल भावोंसे यहाँ भी शान्ति रहती है व परलोकमें भी शान्ति मिलती है; क्योंकि साताकारी कर्मोंके बन्धका साताकारी फल मिलता है परन्तु अशुभ परिणामोंसे यहाँ भी भावोंमें संक्लेशमात्र रहता है तथा उन भावोंसे पापका बंध होता है जिसके फलसे भविष्यके भावोंमें भी दुःख प्राप्त होता है, ऐसा जानकर शांतभावमें सदा रहना योग्य है। संक्लिष्टचेतसां पुंसां बुद्धिः संसारवर्द्धिनी । विशुद्धचेतसां वृत्तिः सम्यक्त्ववित्तदायिनी ॥१७३॥ अन्वयार्थ-(संक्लिष्टचेतसां पुंसां) संक्लेशपरिणामधारी पुरुषोंकी (बुद्धिः) बुद्धि (संसारवर्द्धिनी) संसारको बढानेवाली होती है (विशुद्धचेतसां वृत्तिः) परन्तु निर्मल भावधारी पुरुषोंकी प्रवृत्ति या सहनशीलता (सम्यक्त्ववित्तदायिनी) सम्यग्दर्शनरूपी धनको देनेवाली होती है। ___ भावार्थ-जिनके परिणामोंमें संसारके पदार्थों की तृष्णाके वश रातदिन अशुभ संक्लेशभाव रहते हैं उनके मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषायोंका निरन्तर बंध पडता है। वे निगोद पर्यायमें चले जाते हैं। वहाँ अनन्तकाल तक जन्म-मरण करते हैं। परन्तु जिनके परिणाम शुभ हैं, शान्त हैं वे तत्त्वोंका मनन करते हैं । उनको निज आत्माका श्रद्धान होना बहुत संभव है। सम्यग्दर्शनके लाभके समान जगतमें कोई धन नहीं है। शांत चित्तवालोंको ही ऐसे अपूर्व धनकी प्राप्ति होती है। वे इस धनके प्रतापसे मुक्तिसुन्दरीको वश कर लेते हैं। यदा चित्तविशुद्धिः स्यादापदः सम्पदस्तथा। समस्तत्त्वविदां पुंसां सर्वं हि महतां महत् ॥१७४॥ अन्वयार्थ-(यदा चित्तविशुद्धिः स्यात्) जब मनमें विशुद्धता रहती है तब (तत्त्वविदां पुंसां) तत्त्वज्ञानी पुरुषोंके चित्तमें (आपदः तथा सम्पदः समः) आपत्तिमें व सम्पदाओंमें समान भाव रहता है (महतां सर्वं हि महत्) महान पुरुषोंकी सर्व ही चेष्टा महान होती है। पाठान्तर-१. तदा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178