Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 97
________________ सारसमुच्चय सुखसम्भोगसंमूढा विषयास्वादलम्पटाः । स्वहिताद् भ्रंशमागत्य गृहवासं सिषेविरे ॥१५९॥ अन्वयार्थ-(सुखसम्भोगसंमूढा) जो प्राणी इन्द्रियोंके सुखोंके भोगमें मूढ हो जाते हैं और (विषयास्वादलम्पटाः) विषयोंके स्वादमें लम्पटी हो जाते हैं वे साधु हो करके भी (स्वहितात्) अपने आत्माके हितसे (भ्रंशं आगत्य) भ्रष्ट होकर (गृहवास) गृहस्थके जीवनको (सिषेविरे) सेवन करने लगते हैं । ___ भावार्थ-आत्माका हित आत्मानन्दका प्रेम व विषयोंसे वैराग्य है इसीसे मुक्तिका लाभ होता है । साधुपदको इसीलिए धारण किया जाता है कि निश्चिन्त होकर आत्मध्यान व शास्त्रमनन करके आत्माकी उन्नति की जावे और कर्मोंकी निर्जरा की जावे, परन्तु यदि कोई साधुपदमें रहते हुए मिथ्यात्वके उदयसे विषयोंका लम्पटी हो जावे व सांसारिक सुखोंका मोही हो जावे तो उसका साधुपद भ्रष्ट हो जाता है, और उसे फिर उसी गृहस्थपनेको ग्रहण करना पडता है जिसका उसने त्याग किया था । अर्थात् फिर वह साधारण मानव होकर अपने मानव जन्मको नष्ट कर देता है। वियोगा बहवो दृष्टा द्रव्याणां च परिक्षयात् । तथापि निघृणः चेतः सुखास्वादनलम्पटः ॥१६०॥ अन्वयार्थ-(द्रव्याणां च परिक्षयात्) धनादिके नाश हो जानेसे (बहवः वियोगाः दृष्टाः) बहुतसे वियोग दिखलाई पडते हैं (तथापि) तो भी (निघृणः चेतः) भोगोंसे घृणा न करता हुआ (सुखास्वादनलम्पटः) इन्द्रियसुखके स्वादमें लम्पटी हो जाता है। भावार्थ-इस जगतमें भोग सम्पदाएँ स्थिर नहीं रहती हैं। पापके उदयसे बहुतोंकी धनादि वस्तुएँ नाश हो जाती हैं तब उनको इष्टवियोगका बड़ा कष्ट होता है । वे दुःखोंके सागरमें डूब जाते हैं। यह संसार संयोगवियोगरूप है। सम्पदा स्थिर नहीं रह सकती है, यौवन अस्थिर विनाशीक है, शरीर क्षणिक है, अचानक मरण आ जाता है। प्राणी विषयोंकी तृष्णाको लिये हुए मर जाता है, स्वप्नसम क्षणभंगुर भोगोंका मोह महान दुःखदायी है, ऐसा जानकर भी अज्ञानी प्राणी इनसे घृणा नहीं करता है और फिर भी उन्हीं नाशवंत अतृप्तिकारी विषयोंके स्वादमें लम्पटी बना रहता है, जिससे अपने दोनों लोक बिगाड़ता है। यथा च जायते चेतः सम्यक्शुद्धिं सुनिर्मलाम् । तथा ज्ञानविदा कार्यं प्रयत्नेनापि भूरिणा ॥१६१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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