________________
७८
सारसमुच्चय वह रातदिन भोजन, वस्त्र देकर पालता है, और बड़ी भारी सँभाल रखता है, जिस शरीरके पीछे धर्म-कार्यमें भी हानि पहुँचा देता है वही शरीर अन्तमें अपनेको छोड़ देता है । जब वह शरीर ही अपना नहीं रहता है तब बाहरी पदार्थों में कैसे विश्वास किया जावे कि वे अपने रहेंगे ? अर्थात् इस आत्माका कोई साथी-संगी नहीं है । एक अपना पाला हुआ धर्म है जो हर जगह सहायी होता है। इसलिए शरीरके पीछे आत्महित न करना बड़ी भारी मूढता है।
नायातो बन्धुभिः सार्धं न गतो बन्धुभिः समं ।
वृथैव स्वजने स्नेहो नराणां मूढचेतसाम् ॥१५५॥ अन्वयार्थ-(बन्धुभिः सार्द्ध न आयातः) यह जीव अपने भाई बन्धुओंके साथ-साथ नहीं जन्मता है (न बन्धुभिः समं गतः) न बन्धुओंके साथ-साथ मरता है। (मूढचेतसाम् नराणां) मूढबुद्धि मानवोंका (स्वजने स्नेहो) अपने बन्धु एवं रिश्तेदारोंमें स्नेह (वृथा एव) वृथा ही है । ___ भावार्थ-जो कोई मूढ प्राणी हैं, जिनको अपने आत्माके स्वभावका व उसकी भिन्न सत्ताका विश्वास नहीं है वे रातदिन स्त्री-पुत्र-मित्रादिके स्नेहमें पागल रहते हैं । वे इस बातको भूल जाते हैं कि हरएक जीव भिन्न-भिन्न ही पैदा होता है, भिन्न-भिन्न ही मरता है । न कोई किसीके साथ जन्मता है, न कोई किसीके साथ मरता है। तथा एक कुटुम्बमें जीव विभिन्न गतियोंसे आकर जन्म लेते हैं, कोई पशुगतिसे, कोई मानवगतिसे, कोई देवगतिसे
और कोई तिर्यंचगतिसे आते हैं, तथा अपने पाप व पुण्यके अनुसार कोई किसी गतिमें और कोई किसी गतिमें चले जाते हैं। किसीके साथ किसीका कोई चिरकालका सम्बन्ध नहीं है । एक कुटुम्बमें रहते हुए भी सब कोई स्वार्थवश ही एक दूसरेसे स्नेह करते हैं। इसलिए ज्ञानी प्राणी इन कुटुम्बीजनोंके पीछे अपने आत्माके हितको कभी नहीं भूलते हैं। जलमें कमलवत् अलिप्त रहते हुए अपने आत्मोद्धारमें सदा सावधान रहते हैं।
जातेनावश्यमर्तव्यं प्राणिना प्राणधारिणा ।
अतः कुरुत मा शोकं मृते बन्धुजने बुधाः ॥१५६॥ अन्वयार्थ-(प्राणधारिणा प्राणिना) प्राणोंको धरनेवाला प्राणी (जातेन) जो जन्मा है (अवश्य मर्तव्यं) उसे अवश्य मरना पडेगा (अतः) इसलिए (बुधाः) बुद्धिमान मानव (बन्धुजने) बन्धुजनके (मृते) मरनेपर (शोकं मा कुरुत) शोक नहीं करते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org