________________
वैराग्य सुखका कारण है
७१ बना दिया है। उन कर्मोंके जीतनेका यह अवसर है । यदि तू चाहता है कि कर्मोंसे सताया न जाऊँ तो पुरुषार्थ करके ऐसा संयम व तपका साधन कर जिससे कर्म निर्बल होकर क्षीण हो जावें और तू मुक्त हो जावे । ऐसा अवसर बार-बार मिलना कठिन है। यदि जीव जैनधर्मकी शरण ग्रहण करेगा और उसकी आज्ञामें चलेगा तो अवश्य ही जिनेन्द्रके समान हो जायेगा। वही सच्चा जैनीपना है, जो कर्मोंको जीतनेका साहस करके पुरुषार्थ करें।
अब्रह्मचारिणो नित्यं मांसभक्षणतत्पराः ।
शुचित्वं तेऽपि मन्यन्ते किन्नु चित्रमतः परम् ॥१३९॥ अन्वयार्थ-(अब्रह्मचारिणः) कोई कोई ब्रह्मचर्यको न पालते हुए (नित्यं) सदा ही (मांसभक्षणतत्पराः) मांसभक्षणमें लगे रहते हैं (ते अपि शुचित्वं मन्यन्ते) तो भी वे अपनेको पवित्र मानते हैं (किन्नु अतः परं चित्रं) इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है ? ___ भावार्थ-जगतके मोहमें फँसे हुए, मांसाहार करते हुए, कुशीलका सेवन करते हुए, कोई कोई अपनेको धर्मात्मा व पवित्र मानते हैं यह बात आश्चर्यकारी इसलिये है कि जब मांसाहारी और कुशीलसेवी मानव भी अपनेको पवित्र मानेगा तो फिर अपवित्र किसको कहा जायेगा ? अर्थात् यह उनका भ्रम है। इससे मानव-जीवन पवित्र नहीं हो सकता।
येन संक्षीयते कर्म संचयश्च न जायते ।
तदेवात्मविदा कार्यं मोक्षसौख्याभिलाषिणा ॥१४०॥ अन्वयार्थ-(येन कर्म संक्षीयते) जिस कारणसे पूर्व संचित कर्मोंका क्षय हो जावे (च संचयः न जायते) व नवीन कर्मोंका संचय न हो (तत् एव) वह ही काम (मोक्षसौख्याभिलाषिणा) मोक्ष-सुखके अभिलाषी (आत्मविदा) आत्मज्ञानीको (कार्य) करना योग्य है।
भावार्थ-आत्माके महान शत्रु कर्म हैं। जब तक कर्मोंका संयोग जीवके साथ रहता है तब तक जीव स्वतंत्र नहीं होता, वह पराधीन हुआ आकुलताको सहता है व अपने स्वाभाविक आनन्दका लाभ नहीं कर सकता है, तथा जन्ममरणादि दुःखोंको भवभवमें उठाता है। इसलिए कर्मोंका नाश अवश्य कर्तव्य है । नवीन कर्मोंके रोकनेका और पुरातन कर्मोंकी निर्जराका उपाय वास्तवमें सम्यग्दर्शन है तथा सम्यग्दर्शनसहित चारित्र तथा आत्मानुभव है अतएव ज्ञानीको उद्यम करके आत्मध्यानका अभ्यास करना योग्य है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org