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वैराग्य सुखका कारण है
इन्द्रियप्रसरं रुद्ध्वा स्वात्मानं वशमानयेत् । येन निर्वाणसौख्यस्य भाजनं त्वं प्रपत्स्यसे ॥१३४॥ अन्वयार्थ-(इंद्रियप्रसरं रुद्ध्वा ) इन्द्रियोंकी इच्छाओंके विस्तारको रोक करके (स्वात्मानं वशं आनयेत्) अपने आत्माको अपने आधीन रक्खे (येन) जिससे (त्वं) तू (निर्वाणसौख्यस्य भाजनं प्रपत्स्यसे) निर्वाण सुखका पात्र हो जायेगा ।
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भावार्थ- इन्द्रियोंको और मनको वशमें करनेसे ही उपयोग अपने ही घरमें अपने आत्माके स्वभावमें क्रीडा करने लगता है तब सहज ही में आत्मसुखका स्वाद आने लगता है । इसी आत्मस्थवृत्तिका अभ्यास जितनाजितना बढता जाता है उतना उतना ही निर्वाणसुख निकट आता जाता है । पूर्ण वीतरागी होना ही निर्वाणका आधिपतित्व है ।
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सम्पन्नेष्वपि भोगेषु महतां नास्ति गृद्धता ।
अन्येषां गृद्धिरेवास्ति शमस्तु न कदाचन ॥ १३५॥
अन्वयार्थ - (भोगेषु सम्पन्नेषु अपि ) विषयभोगोंकी पूर्णता होनेपर भी ( महतां ) महान पुरुषोंकी (गृद्धता) लोलुपता (नास्ति) उनमें नहीं होती है (अन्येषां ) अन्य मिथ्यादृष्टि जीवोंकी (गृद्धिः एव अस्ति) उनमें लोलुपता होती ही है ( तु कदाचन शमः नास्ति) उससे उन्हें किंचित् भी शांति नहीं मिलती है
भावार्थ- गृहस्थ अवस्थामें रहनेवाले धर्मात्मा जीवोंको चक्रवर्ती. बलदेव, तीर्थंकर आदि पद प्राप्त होते हैं । उनके इच्छित भोगोंकी सर्व सामग्री भी अनायास मिलती हैं। वे उनमें न तो लोलुप होते हैं, न तृष्णाकी दाह उत्पन्न करते हैं । वे आत्मानन्दमें ही रुचि रखते हैं | चारित्रमोहनीयके उदयवश यद्यपि उन्हें इन्द्रियभोगोंमें प्रवृत्ति करनी पड़ती है किन्तु उनकी उसमें मूर्छा नहीं होती, वे उसे त्यागने योग्य ही समझते हैं । ऐसी दशामें उनके आत्महितका विनाश नहीं होता; परन्तु मिथ्या दृष्टिको आत्मसुखका विश्वास नहीं है, वह इंद्रियसुखको ही सुख समझता है । इसलिए भोगसामग्री अल्प होनेपर भी वह बड़ा लोलुप होता है । विषय- चाहकी दाहमें वह सदा जलता हुआ कभी भी शांति नहीं पाता है ।
षट्खण्डाधिपतिश्चक्री परित्यज्य वसुन्धराम् । तृणवत् सर्वभोगांश्च दीक्षां दैगम्बरी स्थिता ॥१३६॥
अन्वयार्थ - (षट्खण्डाधिपतिः चक्री) छः खंडका स्वामी चक्रवर्ती सम्राट भी ( वसुंधरां) इस पृथ्वीको ( च सर्वभोगान् ) और सर्व भोग्य पदार्थोंको (तृणवत् ) तृणके समान (परित्यज्य) छोड़कर (दैगम्बरी दीक्षां स्थिता) निर्ग्रथ दिगम्बर मुनिकी
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