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सारसमुच्चय मरकर नरकमें घोर दुःख पाते हैं। इसलिए ज्ञानी जीवोंको भले प्रकार इन भोगोंका विपरीत स्वभाव विचार कर इनसे विरक्त होना चाहिए और यदि शक्य हो तो उनका सर्वथा त्याग कर धर्ममय जीवन बिताना योग्य है। घरमें रहकर इच्छाशक्तिको कम करनेसे आत्मानंद मिल सकता है। अन्यथा गृहस्थमें संतोषपूर्वक रहकर न्यायोपार्जित भोग भोगते हुए मुनिधर्मकी भावना भाते हुए गृहीके अहिंसादि बारह व्रत पालने चाहिए। क्योंकि ज्ञान और ध्यान ही कर्मनिर्जराके कारण हैं ।
विषयास्वादलुब्धेन रागद्वेषवशात्मना ।
आत्मा च वंचितस्तेन यः शमं नापि सेवते ॥१३२॥ अन्वयार्थ-(यः) जो कोई (विषयास्वादलुब्धेन) पंचेन्द्रियोंके विषयोंके स्वादकी लुब्धतासे (रागद्वेषवशात्मना) रागद्वेषके आधीन होता हुआ (शमं नापि सेवते) शांतभावका सेवन नहीं करता है (तेन) उसने (आत्मा वंचितः) अपने आपको ठगा है।
भावार्थ-इस मानवजन्मको पाकर सुखशांतिका लाभ करना चाहिए। जो इस प्रवृत्तिसे विमुख होकर इन्द्रियसुखोंके स्वादमें लुब्ध हो जाता है वह इष्ट पदार्थोंसे राग और अनिष्ट पदार्थोंसे द्वेष करता हुआ कर्मोंको बाँधकर इस संसारमें दीर्घकाल भ्रमण करके बहुत कष्ट उठाता है। उसने अपने कल्याणके अवसरको खोकर अपने आपको धोखा दिया है और अपना बुरा किया है । इसलिए बुद्धिमान मानवको कोड़ीके पीछे रतन नहीं गँवाना चाहिए । विषयस्वादके पीछे आत्मानन्दके अपूर्व लाभको नहीं खोना चाहिए।
आत्मना यत्कृतं कर्म भोक्तव्यं तदनेकधा । तस्मात् कर्मास्रवं रुद्ध्वा स्वेन्द्रियाणि वशं नयेत् ॥१३३॥
अन्वयार्थ-(यत्) जो (कर्म) कर्मबंध (आत्मना कृतं) आत्माने किया है (तत् अनेकधा भोक्तव्यं) उसीका फल अनेक प्रकारसे भोगना पडता है (तस्मात) इसलिए (कर्मास्रवं) कर्मोंके आस्रवको (रुद्ध्या) रोककर (स्वेन्द्रियाणि वशं नयेत्) अपनी इन्द्रियोंको वशमें करे।
भावार्थ-कर्मबंधसे ही जीवको अनेक कष्ट भोगने पडते हैं । इसलिए कर्मोंके आस्रव और बंधको रोकना उचित हैं। इसी कारणसे उन इन्द्रियोंको अपने वशमें रखना चाहिए जिनके आधीन होकर यह जीव रागद्वेषमें फँसकर अकर्तव्यको कर्तव्य समझने लगता है, अभक्ष्यको खाने लगता है, अन्यायमें प्रवृत्ति करने लगता है।
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