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सारसमुच्चय इन्द्रिय-भोगोंकी असारता भुक्त्वाऽप्यनन्तरं भोगान् देवलोके यथेप्सितान् ।
यो हि तृप्तिं न सम्प्राप्तः स किं प्राप्स्यति 'सम्प्रति ॥७५॥ अन्वयार्थ-(देवलोके) स्वर्गलोकमें (यथेप्सितान्) इच्छानुसार (भोगान्) भोगोंको (अनन्तरं) निरन्तर (भुक्त्वाऽपि) भोगकर भी (यः) जो कोई (हि) निश्चयसे (तृप्तिं न सम्प्राप्तः) तृप्त नहीं हुआ (सः) वह (सम्प्रति) वर्तमान तुच्छ भोगोंसे (किं) किस तरह (तृप्ति) तृप्तिको (प्राप्स्यति) प्राप्त कर सकेगा? । __भावार्थ-इन्द्रियोंके भोगोंसे कभी तृप्ति नहीं हो सकती है । जितना भी भोगोंको भोगा जाता है उतनी ही तृष्णा बढ़ती जाती है। जैसे खाजको जितना भी खुजाया जावे बढ़ती जाती है। देवलोकमें देवोंको विक्रिया करनेकी शक्ति है, जिससे वे नाना प्रकारके भोग देवियोंके साथ निरन्तर करते हैं, इच्छानुसार भोग करते हैं तो भी उनका मन नहीं भरता है, तो इस मनुष्यलोकके बहुत ही अल्प इन्द्रियोंके भोगोंसे तृप्ति होनी असंभव ही है। एक तो यहाँ इच्छानुकूल भोग नहीं मिलते हैं, दूसरे यदि मिलते भी हैं तो उनसे तृप्ति होनी कठिन है । इसलिए इन अतृप्तिकारी भोगोंमें फँसकर जो धर्मका अपूर्व साधन मनुष्यजन्ममें हो सकता है उसको न करना मूर्खता है।
वरं हालाहलं भुक्तं विषं तद्भवनाशनम् ।
न तु भोगविषं भुक्तमनन्तभवदुःखदम् ॥७६॥ अन्वयार्थ-(तद्भवनाशनम्) उसी एक जन्मके नाश करने वाले (हालाहलं विषं) हलाहल विषको (भुक्तं) खा लेना (वरं) अच्छा है। (तु) परन्तु (अनंतभवदुःखदम्) अनंत जन्मोंमें दुःख देने वाले (भोगविष) भोगरूपी विषको (भुक्तं) भोगना (न) ठीक नहीं है।
भावार्थ-जो मूर्ख इन्द्रियोंके विषयोंके सुखमें आसक्त होकर न्याय अन्याय धर्म अधर्मका विचार नहीं रखते हैं, निरर्गल होकर भोगोंमें लिप्त हो जाते हैं और धर्मकार्यसे विमुख रहते हैं वे ऐसा तीव्र मिथ्यात्वादि कर्मोंका बन्ध करते हैं, जिस कर्मके उदयसे अनंत जन्मोंमें एकेन्द्रियादिके कष्ट भोगने पड़ते हैं। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि कदाचित् विष खाकर मर जाना अच्छा है-उससे इसी जन्ममें शरीरका नाश होगा परन्तु विषयभोगोंमें लिप्त होना अच्छा नहीं, जो भविष्यमें महान दुःखदायी है।
पाठान्तर-१. साम्प्रतम् ।
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