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इन्द्रिय-भोगोंकी असारता इन्द्रियप्रभवं सौख्यं सुखाभासं न तत्सुखम् ।
तच कर्मविबन्धाय दुःखदानैकपण्डितम् ॥७७॥ अन्वयार्थ-(इन्द्रियप्रभवं) इन्द्रियोंके भोगोंसे होनेवाला (सौख्यं) सुख (सुखाभास) सुखसा दीखता है (तत्) परन्तु वह (सुखं न) सच्चा सुख नहीं है (तत् च) वह तो (कर्मविबन्धाय) कर्मोंका विशेष बन्ध करानेवाला है (दुःखदानैकपण्डितम्) तथा दु:खोंके देनेमें एक पंडित है अर्थात् महान दुःखदायक है।
भावार्थ-यहाँ सच्चे सुखकी तरफ आचार्य लक्ष्य कराते हुए कहते हैं कि सच्चा आनन्द वह है जो हरएक आत्माका स्वभाव है और जिसे हरएक आत्मा अपने आत्माके अनुभवसे ही प्राप्त कर सकता है। इस सुखके भोगनेमें कभी कष्ट नहीं होता है, न वर्तमानमें होता है, न भविष्यमें होता है, क्योंकि इस सुखके भोगसे कर्मोंकी निर्जरा हो जाती है । मुक्तात्माओंका सुख स्वाधीन और आत्मोत्थ है। जबकि इन्द्रियोंके भोगोंसे जो सुख प्रगट होता है वह सुख सरीखा दीखता है परन्तु वह वास्तविक सुख नहीं है। अपने रागभावकी पीडा न सह सकनेके कारण यह प्राणी इन्द्रिय भोग करता है, उससे वर्तमानकी पीड़ा कुछ क्षणके लिए शमन हो जाती है । किन्तु कुछ ही देर पीछे तृष्णाके वेगसे पीड़ा और अधिक हो जाती है। अतएव इन्द्रियोंका भोग चित्तके तापको बढ़ानेवाला ही है । तथा तीव्र रागसे अशुभ कर्मोंका बंध हो जाता है जिससे भावी कालमें भी दुःख होगा । इसलिए ज्ञानी जीवको इन्द्रिय सुखको असार व दुःखरूप व संसारवर्द्धक जानकर इससे श्रद्धा हटा लेनी चाहिए, केवल अतीन्द्रिय आत्मिक सुखकी ही प्राप्तिकी कामना रखनी चाहिए।
अक्षाश्वान्निश्चलं धत्स्व विषयोत्पथगामिनः ।
वैराग्यप्रग्रहाकृष्टान् सन्मार्गे विनियोजयेत् ॥७॥ अन्वयार्थ-(विषयोत्पथगामिनः) विषयोंके कुमार्गमें ले जानेवाले (अक्षाश्वान्) इन्द्रिय रूपी घोडोंको (निश्चल) निश्चल होकर (धत्स्व) पकड़ो (वैराग्यप्रग्रहाकृष्टात्) और वैराग्यरूपी लगामसे खींचकर उन्हें (सन्मार्गे) सच्चे मार्गमें (विनियोजयेत्) लगाओ, अथवा चलाओ। ___ भावार्थ-जैसे घोड़ोंकी लगाम हाथमें न हो तो वे घोडे इच्छानुकूल कुमार्गमें घुडसवारको ले जाकर पटक देते हैं, परन्तु यदि उनकी लगाम हाथमें हो तो घुडसवार उन घोडोंको ठीक मार्गमें चला सकेगा, उसी तरह विवेकी मानवका कर्तव्य है कि पाँचों इन्द्रियरूपी अधोंको अपने वशमें
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