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कामवासनाकी असारता
५७ हैं । चित्तमें समता व निराकुलता कभी नहीं रहती । इष्ट स्त्रीके साथ संसर्ग करनेकी आकुलतामें मन फँसा रहता है । जिन साधु सन्तोंका यह उद्देश्य है कि वे अपने आत्माको इस भयानक संसार-समुद्रसे पार करके ध्रुव व शान्तिमय मुक्तिके आनन्दमें विराजमान कर दे, उनको पूर्ण उद्योग करके कामभावना सदा ही त्याग करनी चाहिए | ब्रह्मचर्यकी पाँच भावनाएँ भानी चाहिए-(१) स्त्रियोंमें राग बढानेवाली कथा न करे, (२) उनके मनोहर अंगोंको रागभावसे न देखे, (३) पूर्वके भोगे भोग याद न करे, (४) कामोद्दीपक रस व भोजन न खावे, (५) अपने शरीरका शृंगार न रखे। जो साधु पाँच भावनाओंको भाते हैं और स्त्री, नपुंसक आदि विकारी पात्रोंका जहाँ आना-जाना न हो ऐसे एकांतमें शयनासन करते हैं वे महात्मा कामभावको जीत लेते हैं।
कामार्थों वैरिणौ नित्यं विशुद्धध्यानरोधनौ ।
संत्यज्यतां महाक्रूरौ सुखं संजायते नृणाम् ॥१०९॥ अन्वयार्थ-(कामार्थो) काम और धन (नित्यं विशुद्धध्यान-रोधनौ) हमेशा निर्मल ध्यानके रोकनेवाले हैं, (महाक्रूरौ) महान दुष्ट हैं, (वैरिणौ) आत्माके वैरी हैं, (संत्यज्यतां) उन दोनोंको छोड़ देना चाहिए तब (नृणाम्) मानवोंको (सुखं संजायते) सुख पैदा होता है।
भावार्थ-विषयभोगोंकी लालसा तथा धनकी ममता, धन कमानेकी, संग्रहकी और संरक्षणकी चिन्ता ये दोनों ही निर्मल शुद्ध आत्मध्यानके होनेमें विघ्नकारक हैं। जब कोई ध्यान करने बैठेगा तब धन-सम्बन्धी व कामभोग सम्बन्धी विचार आकर घेर लेंगे। जब संयोग न रहेगा तब उनका स्मरण भी न होगा। अतएव जो मानव आत्मानन्दके वांछक हैं उनका कर्तव्य है कि धन और कामभोगोंका संयोग छोड़कर त्यागी संयमी हो जावें और निराकुल होकर आत्मानुभव करें, तब उनको परम निराकुल आत्मसुखका लाभ होगा।
कामदाहो वरं सोढुं न तु शीलस्य खण्डनम् ।
शीलखण्डनशीलानां नरके पतनं ध्रुवम् ॥११०॥ अन्वयार्थ-(कामदाहः सोढुं वरं) कामकी चाहकी दाहको सह लेना अच्छा है (तु) परन्तु (शीलस्य खंडनं न) शील या ब्रह्मचर्यका खंडन अच्छा नहीं है । (शीलखंडनशीलानां) जो मानव शीलखंडनकी आदत डाल लेते हैं (ध्रुवं) निश्चयसे (नरके पतन) उनका नरकमें पतन होता है ।
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