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कामवासनाकी असारता
५५ जिससे बड़े-बड़े संकट आकर उसे घेर लेते हैं; वह राज्यदंड, पंचदंडको पाता है, जगतमें अपयशका पात्र हो जाता है । काम आत्माका महान शत्रु है।
पिशाचेनैव कामेन छिद्रितं सकलं जगत् ।
बंभ्रमेति परायत्तं भवाब्धौ स निरन्तरम् ॥१०५॥ अन्वयार्थ-(पिशाचेन इव) भूत पिशाचके समान (कामेन) काम भावने (सकलं जगत्) सर्व जगतके प्राणियोंको (छिद्रित) दोषी बना दिया है (सः) वह जीव (परायत्तं) कामके आधीन होकर (भवाब्धौ) संसाररूपी सागरमें (निरंतरं) सदा (बंभ्रमेति) भ्रमण किया करता है।
भावार्थ-बड़े-बड़े वीर राजा-महाराजा योद्धा कामके वशीभूत होकर दोषोंके पात्र बन जाते हैं, दीनहीन चेष्टा बना लेते हैं, घोर अन्याय करने लग जाते हैं, परस्त्रीगामी हो जाते हैं । कामभावके आधीन जो-जो जीव होते हैं वे यहाँ भी बड़ी आकुलतासे जीवन बिताते हैं, आत्मिक सुखशांतिको कभी पाते नहीं हैं और पापकर्मका ऐसा तीव्र बन्ध कर लेते हैं जिससे उनको दीर्घकाल तक नरकतिर्यञ्चगतिमें अनेक जन्म धर-धरकर संसारमें भ्रमण करना पडता है । यह कामभाव संसारके भ्रमणका प्रबल कारण है।
वैराग्यभावनामंत्रैस्तनिवार्य महाबलं ।
स्वच्छन्दवृत्तयो धीराः सिद्धिसौख्यं प्रपेदिरे ॥१०६॥ अन्वयार्थ-(स्वच्छन्दवृत्तयः) स्वतन्त्र आचरण रखनेवाले और कामके वश न होनेवाले (धीराः) धैर्यवान मानव (वैराग्यभावनामंत्रैः) वैराग्यभावनारूपी मंत्रोंसे (तत् महाबलं) उस कामके महाबलको (निवार्य) दूर करके (सिद्धिसौख्यं) मोक्षके आनन्दको (प्रपेदिरे) पा चुके हैं।
भावार्थ-जो विषय-कषायोंके आधीन नहीं हैं किंतु आत्माका हित सदा विचारनेवाले हैं, उन्हींको स्वतंत्र मानव कहते हैं । वे बड़े धैर्यवान होते हैं, वे परिणामोंमें उत्पन्न होनेवाले कामके विकारोंको जीतनेके लिए वैराग्यकी भावना भाते हैं। वे यही विचारते हैं कि कामके सेवनसे कभी कामका रोग शान्त नहीं हो सकता है किन्तु और अधिक कामकी दाह बढ़ जाती है। इसलिए इस अतृप्तिकारी क्षणिक सुखकी आशा छोडकर आत्माके स्वाभाविक आनन्दका लाभ लेना ही हितकर है। कामके वेगको रोकनेमें हित है। जबकि इसके आधीन होनेसे अपना सरासर बिगाड है । मानव-जन्मकी सफलता जिस आत्मोन्नतिसे होती है उसमें तीव्र बाधा खड़ी होती है। मानव-जन्मका पाना अत्यन्त दुर्लभ है। यदि इसमें संयमका
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