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स्त्रियोंका स्वरूप
६३ अन्वयार्थ-(या च एषा) जो यह (प्रमदा) तरुणा स्त्री (लावण्य-जलवासिनी) अपनी सुन्दरतारूपी जलसे भरी हुई नदीके (भाति) समान प्रतीत होती है (सा एषा) यही वह स्त्री (दुःखोर्मिशतसंकुला) हजारों दुःखरूपी तरंगोंसे भरी हुई (घोरा) भयानक (वैतरणी) नरककी वैतरणी नदीके समान है।
भावार्थ-शरीरसे सुन्दर और अत्यन्त रूपवान स्त्रीको देखकर रागीका मन मोहित हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि वह स्त्री नहीं है किंतु नरककी घोर भयंकर वैतरणी नदी है । यह उपमा पुरुषकी अपेक्षासे दी है, अपनी अपेक्षासे स्त्री व पुरुषका रूप अपने-अपने बाँधे हुए नामकर्मके उदयसे सुन्दर या असुन्दर होता है । मोही पुरुष जब सुन्दर स्त्रीमें मोहित हो जाता है तब जैसे वैतरणी नदीमें नहानेसे दाह मिटनेकी अपेक्षा अधिक बढ जाती है, वैसे स्त्रीके मोहमें फँसनेसे कामदाह बढ़ जाती है । जब वह स्त्रीसंभोग करता है तो अधिक कामदाहको बढ़ा लेता है। जितना-जितना वैतरणी नदी तुल्य स्त्री-सुखमें डूबा जाता है उतना-उतना कामदाह अधिक होता जाता है, और यह प्राणी इस स्त्रीके मोहके कारण मोक्षका मार्ग नहीं साध सकता है।
संसारस्य च बीजानि दुःखानां राशयः पराः । पापस्य च निधानानि निर्मिता केन योषिताः॥१२१॥
अन्वयार्थ-(संसारस्य बीजानि) संसारको उत्पन्न करनेके लिए बीजके समान (च दुःखानां पराः राशयः) और दुःखोंसे भरी हुई गंभीर खानके समान (च पापस्य निधानानि) तथा पापरूपी मैलके निधान समान (योषिताः) इन स्त्रियोंको (केन निर्मिताः) किसने बनाया है ?
भावार्थ-यहाँ भी स्त्रियोंका स्वरूप मोही पुरुषकी अपेक्षासे बताया गया है। जो कोई स्त्रियोंके मोहमें फँस जाता है उसका संसार बढ़ता है। उसे मोक्षका बीज नहीं मिलता है। उसे इष्टवियोग और शारीरिक रोग, निर्बलता आदिके बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं, तथा उसके रागी, मोही एवं कामी भावोंसे निरन्तर पापका बंध होता है । अतएव ज्ञानी जीवको स्त्रियोंसे मोह न करना योग्य है।
इयं सा मदनज्वाला वह्वेरिव समुद्भुता ।
'मनुष्यैर्यत्र हूयंते यौवनानि धनानि च ॥१२२॥ अन्वयार्थ-(इयं सा) जो यह (मदनज्वाला) कामका दाह है सो (वह्नः इव) पाठान्तर-१. नराणां यत्र ।
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