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वैराग्य सुखका कारण है
वैराग्य सुखका कारण है
अहो ते सुखितां प्राप्ता ये कामानलवर्जिताः । सद्वृत्तं विधिना पाल्यं यास्यन्ति पदमुत्तमम् ॥ १२५ ॥ अन्वयार्थ - ( अहो ) अद्भुतता है कि ( ये ) जो ( कामानलवर्जिता) कामरूपी आगसे नहीं जलते हैं (ते) वे (सुखितां प्राप्ताः) सुखकी दशाको पहुँच गये हैं, वे ही ( विधिना ) विधिपूर्वक (सवृत्तं) सम्यक्चारित्रका (पाल्यं) पालन करके ( उत्तमं पदं ) उत्तम मोक्षपदको (यास्यन्ति ) प्राप्त कर लेते हैं ।
भावार्थ- सुख शान्ति तब ही मिलती है जब संतोष हो व विषयोंकी इच्छा न हो । जिन्होंने कामकी दाह शमन कर दी है, ब्रह्मचर्य व्रतको भावसहित धारण किया है वे ही निराकुल होनेसे सुखी हैं तथा वे ही मुनिधर्मकी क्रियाओंको शास्त्रानुकूल विधिसे पालते हैं, उनके भीतर आत्मानुभवरूप निश्चय चारित्र बढ़ता जाता है । वे शीघ्र ही कर्मोंको क्षय करके मुक्त हो जाते हैं ।
भोगार्थी य करोत्यज्ञो निदानं मोहसङ्गतः । चूर्णीकरोत्यसौ रत्नं 'अनर्थसूत्रहेतुना ॥ १२६॥
अन्वयार्थ - (यः भोगार्थी) जो भोगोंको चाहनेवाला (अज्ञः ) अज्ञानी (मोहसङ्गतः) मोहके संयोगसे मोही होकर धर्म पालते हुए भी (निदानं करोति) निदानआगामी भोगोंकी वांछा-करता है (असौ ) वह (अनर्थसूत्रहेतुना ) निष्प्रयोजन सूतके लिए (रत्नं) रत्नको ( चूर्णीकरोति) चूर्ण कर डालता है ।
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भावार्थ- वह मानव मूर्ख है जो सूतके लिए रत्नकी मालाके रत्नोंको चूरा करके फेंक दे और अकेले सूतको ले ले । इसी प्रकार वैसे मानव भी मूर्ख हैं जो जिनेन्द्र - कथित धर्मको पालते हुए आगामी भोगोंकी अभिलाषा करके निदानभावसे अपने रत्नत्रय - धर्मको नाश कर दें। ये भोग रोगके समान त्यागने योग्य हैं । आत्मानंदका भोग ही ग्रहण करने योग्य है । इसीके लिए जिनधर्मका सेवन किया जाता है । ज्ञानी मानव नाशवंत संसारवर्द्धक भोगोंकी कभी इच्छा नहीं करता है, किन्तु मुक्तिके अनुपम निराकुल सुखकी भावना करते हुए ही जिनधर्मको पालता है, निदान कभी नहीं करता है। भव - भोग- शरीरेषु भावनीयः सदा बुधैः ।
निर्वेदः परया बुद्ध्या कर्मारातिजिघृक्षुभिः ॥ १२७॥
पाठान्तर - १. अनर्घ्यं ।
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