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सारसमुच्चय
आराधन न किया तो फिर ऐसे मानव जन्मका आना कठिन होगा । कामका सेवन भूतकालमें अनेक जन्मोंमें किया है। राजपदमें और देवपदमें बहुत सुन्दर-सुन्दर स्त्रियोंका सेवन किया है । जब उन दिव्यभोगोंसे तृप्ति नहीं हुई तो इस पंचमकालके तुच्छ स्त्रीसंभोगसे कैसे तृप्ति होगी ? यह कामका विषयसुख झूठा है, वमन किये हुए अन्नके समान है। ज्ञानीको इसे बिलकुल त्यागकर परमब्रह्मके ध्यानमें मस्त होकर परम सुख लेना चाहिए । प्राचीनकालमें चक्रवर्ती - तीर्थंकरादिने भी स्त्रीभोग त्यागकर वैराग्य ही धारण किया; और जो स्त्रीभोगमें लिप्त रहे वे मरकर नरकादि दुर्गतिमें पहुँचे हैं । इस तरह बारबार अनित्य - अशरणादि बारह भावनाओंके भानेसे कामका विष उसी तरह उतर जाता है जैसे सर्पका विष मंत्रोंके पढनेसे उतर जाता है । जो इस तरह इस विषको उतार देते हैं और आत्मानुभवके द्वारा आत्मानन्दका भोग करते हैं वे एक दिन सिद्ध भगवान होकर अनन्तकाल तकके लिए परमानन्दमें निमग्न रहते हैं और सदाके लिए भवभ्रमणसे छूट जाते हैं ।
कामी त्यजति सद्वृत्तं गुरोर्वाणीं ह्रियं तथा । गुणानां समुदायं च चेतः स्वास्थ्यं तथैव च ॥ १०७॥
तस्मात्कामः सदा हेयो मोक्षसौख्यं जिघृक्षुभिः । संसारं च परित्यक्तुं वाञ्छद्भिर्यतिसत्तमैः ॥ १०८ ॥
अन्वयार्थ - (कामी) कामी मानव (सवृत्तं ) सम्यक्चारित्रको (गुरोः बाण) गुरुकी आज्ञारूपी वाणीको ( तथा हियं) तथा लज्जाको (गुणानां समुदायं च ) और गुणोंके समूहको (तथैव च चेतः स्वास्थ्यं) तैसे ही मनकी निराकुलताको (त्यजति) छोड देता है ( तस्मात्) इसलिए (कामः) यह काम (मोक्षसौख्यं जिघृक्षुभिः) मुक्तिके आनन्दके ग्रहणके इच्छुक (च संसार परित्यक्तुं वाञ्छद्भिः) और संसारके त्यागके वांछक ( यतिसत्तमैः) साधुओंके द्वारा (सदा हेयः) सदा ही छोडने लायक है ।
भावार्थ - यह कामभाव ब्रह्मचर्यका घातक है, साथ ही और भी अहिंसा-सत्यादि व्रतोंका खंडक है । जो कामके वश हो जाते हैं वे गुरुसे ग्रहण की हुई ब्रह्मचर्य व्रतकी प्रतिज्ञाको त्याग बैठते हैं। कामी मानवके भीतरसे लज्जा चली जाती है । वह कामके वेगसे घबड़ाकर तथा स्त्रियोंकी संगति एकान्तमें करनेसे व उनके साथ कामचेष्टा हास्यादि करनेमें लज्जा नहीं करता है । कामके कलंकसे जो क्षमा, संतोष, शान्ति, ब्रह्मज्ञान, आत्मध्यान, वैराग्य आदि गुण प्राप्त किये थे सब धीरे-धीरे खिसकते जाते
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