________________
५४
सारसमुच्चय ____भावार्थ-जब कामभावका काँटा दिनरात चुभा करता है तब इस काँटेको निकालकर फेंक देना ही उचित है । यद्यपि इसका निकलना बड़ा कठिन है तथापि यदि सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्रको पाला जावे, व्यवहारमें व्रताचरण करते हुए निज आत्माके शुद्ध स्वरूपका अनुभव किया जावे तो ब्रह्मभावका प्रभाव परिणामोंमें जमता जायेगा और कामकी शल्य खंडित होती जायेगी, इसी अभ्यासके बलसे कामशल्य बिलकुल निकल जायेगी। अतएव जिनधर्मका श्रद्धापूर्वक आराधन करना आवश्यक है ।
चित्तसंदूषणः कामस्तथा सद्गतिनाशनः ।
सवृत्तध्वंसनश्चासौ कामोऽनर्थपरम्परा ॥१०३॥ __ अन्वयार्थ-(कामः) यह कामभाव (चित्तसंदूषणः) चित्तको मलिन करनेवाला है (तथा सद्गतिनाशनः) तथा शुभगतिका नाशक है । (च सवृत्तध्वंसनः) और सम्यक्चारित्रको भ्रष्ट करनेवाला है। (असौ कामः) यह काम (अनर्थपरम्परा) अनर्थोंकी परंपराको चलानेवाला है।
भावार्थ-यह कामभाव आत्माका महान वैरी है । मनको ऐसा क्षुभित और मलिन कर देता है कि जिससे विवेकभाव नष्ट हो जाता है। परिणाम इतने गन्दे हो जाते हैं कि जिससे शुभगतिका बन्ध न होकर दुर्गतिका बन्ध हो जाता है। जो कोई यथार्थ चारित्रको पालता है और वह कामभाव जागृत करनेवाले निमित्तोंसे नहीं बचता है तो कामका उदय प्रायः उसका भाव बिगाड देता है जिससे उसका चारित्र विनष्ट हो जाता है। अतएव काम-वैरीके वश होना ही अनर्थकर है। फिर एक अनर्थसे दूसरे अनर्थ पैदा हो जाते हैं।
दोषाणामाकरः कामो गुणानां च विनाशकृत् । पापस्य च निजो बन्धुः परापदां चैव संगमः ॥१०४॥
अन्वयार्ष-(कामः) यह काम (दोषाणां) दोषोंकी (आकरः) खान है (च गुणानां विनाशकृत) और गुणोंको नाश करनेवाला है, (पापस्य) पापका (निजः बन्धुः) निजबन्धु है (च एव) और यही (परापदां) बड़ी-बड़ी आपत्तियोंका (संगमः) संगम करानेवाला है।
भावार्थ-आत्माके ज्ञान, क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शौच, संतोष आदि गुण हैं, वे कामभावके कारण नाश हो जाते हैं तथा इनके विरोधी अनेक दोष आकर जमा हो जाते हैं । जहाँ कामभाव है वहाँ पापोंका सदा बंध होता है। तथा कामी जीवका आचरण ऐसा आपत्तिजनक हो जाता है
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org