Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 61
________________ ४४ सारसमुच्चय हुए भोग अहितकारी नहीं होते हैं, तीव्र बन्ध नहीं करते हैं। जबकि अज्ञानीको विषय-भोगोंकी ही श्रद्धा होती है, वह विषयभोगोंमें ही सुख मानता है। इसलिए विषयभोगोंकी रातदिन चाह रखता है और उनका सेवन करता है। उनके पीछे ऐसा उन्मत्त हो जाता है कि धर्माचारको नहीं करता है। इससे तीव्र पापके फलसे दुर्गतिमें घोर कष्ट पाता है। आत्माभिलाषरोगाणां यः शमः क्रियते बुधैः । तदेव परमं तत्त्वमित्यूचुर्ब्रह्मवेदिनः ॥८३॥ अन्वयार्थ-(बुधैः) बुद्धिमान लोग (आत्माभिलाषरोगाणां) अपने इच्छारूपी रोगोंका (यः शमः) जो शमन (क्रियते) करते हैं अर्थात् उनसे हटाकर अपनी श्रद्धाको आत्मस्वरूपकी ओर लगाते हैं, (तत् एव) वह ही (परमं तत्त्व) परम तत्त्व है (इति) यह बात (ब्रह्मवेदिनः) ब्रह्मज्ञानी संतोंने (ऊचुः) कही है। ____ भावार्थ-आत्मज्ञानी साधुओंने भले प्रकार अनुभव करके यह बात जानी है कि इन्द्रियोंकी इच्छाएँ इन्द्रियोंके भोगोंसे नहीं मिटती है प्रत्युत बढ़ती है। किन्तु आत्मध्यान द्वारा स्वात्मानन्दके भोगसे मिटती है। ज्ञान वैराग्य सहित अध्यात्म मनन ही विषय रोगोंकी शांतिकी दवा है । इसलिए वे ही मानव विवेकी हैं जो अतृप्तिकारी इन्द्रियोंके भोगोंमें नहीं फँसते हैं। किंतु उनसे वैराग्यवान होकर परम शांतिके समुद्ररूप निज आत्मिक स्वभावमें निमग्न रहते हैं और उसी चर्चा में लगे रहते हैं। धर्मका परम सार एक आत्मानुभव ही है। यही अनादि विषयकी इच्छारूपी रोगोंकी अचूक दवा है। इंद्रियाणां शमे लाभं रागद्वेषजयेन च । आत्मानं योजयेत् सम्यक् संसृतिच्छेदकारणम् ॥८४॥ अन्वयार्थ-(इन्द्रियाणां शमे) इन्द्रियोंकी इच्छाकी शान्ति होनेपर (च रागद्वेषजयेन) और रागद्वेषको जीत लेनेसे (लाभं) आत्माका कल्याण है इसलिए (आत्मानं) अपनेको (सम्यक्) भले प्रकार (संसृतिच्छेद कारणम्) संसारका विनाश करनेवाले दम्भ, दम त्याग, तप और समाधिरूप कारणोंमें (योगयेत्) अपनेको लगाना चाहिए। __ भावार्थ-भवसागर अथाह है, दुःखोंका घर है। इसमें गोते खानेका कारण तीव्र पापका बन्धन है । इन्द्रियोंको जो अपने वशमें नहीं रख सकता है, तथा जो रागद्वेषके पाशमें फंसा रहता है, विषयभोगोंको जो उपकारी जान उनमें बड़ा राग करता है और जो विरोधी है उन पर उल्टा द्वेष करता है, वह तीव्र कर्म बाँधनेके कारण संसारसे कभी पार नहीं हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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