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इन्द्रिय-भोगोंकी असारता इन्द्रियाणि प्रवृत्तानि विषयेषु निरन्तरम् ।
सज्ज्ञानभावनाशक्त्या वारयन्ति हिते रताः॥८१॥ अन्वयार्थ-(इन्द्रियाणि) ये इन्द्रियाँ (विषयेषु) अपने अपने विषयोंमें (निरन्तरम्) निरन्तर (प्रवृत्तानि) प्रवृत्ति किया करती हैं। जो इनको (सज्ज्ञानभावनाशक्त्या) सम्यग्ज्ञानकी भावनाके बलसे (वारयन्ति) रोकते हैं वे (हिते) आत्महितमें (रताः) रत हो जाते हैं।
___ भावार्थ-इन्द्रियोंका स्वभाव चंचल है। ये निरन्तर अपने-अपने इष्टभोगोंकी कामनाएँ किया करती हैं और पदार्थों को प्राप्त कर उनको भोगा करती है। ज्ञानी जीव सम्यग्ज्ञानके द्वारा इनके अयोग्य स्वभावका विचार करते हैं कि उनके वश हो जाऊँगा तो अपना आत्मकल्याण नहीं हो सकेगा। अतः इनको रोककर अपने आधीन रखना ही श्रेयस्कर है। इनको वशमें रखनेसे इनसे वे ही काम लिए जा सकते हैं जिनसे आपकी उन्नतिमें सहायता मिले । बुद्धिमान वे ही हैं जो इनकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको रोककर आत्मकल्याणमें सदा लीन रहते हैं ।
इन्द्रियेच्छारुजामज्ञः कुरुते यो झुपक्रमम् ।
तमेव मन्यते सौख्यं किं तु कष्टमतः परम् ॥८२॥ अन्वयार्थ-(यः अज्ञः) जो अज्ञानी जीव (इन्द्रियेच्छारुजाम्) इन्द्रियोंके इच्छारूपी रोगोंका (उपक्रमम्) उपाय (हि) निश्चयसे (कुरुते) करता रहता है और (तम् एव) उसीको (सौख्यं) सुख (मन्यते) मानता है (अतः परं) इससे बढ़कर (कष्टं) दुःखकी बात (किं तु) और क्या हो सकती है ?
भावार्थ-वास्तवमें इन्द्रियोंकी इच्छाएँ रोग हैं उन रोगोंकी शांतिका उपाय आत्मानन्दका भोग तथा वैराग्य है । तथापि अज्ञानसे या पूर्वसंस्कारसे उन इच्छाओंके मिटानेके लिए यह प्राणी इन्द्रियोंके विषयोंको भोगनेमें प्रवृत्त होता है और उसीमें ही सुख मान लेता है, यही इसकी भूल है। जैसे रोग हितकारी नहीं होते वैसे रोगको बढ़ानेवाली दवा भी हितकारी नहीं हो सकती । विषयभोगसे इच्छारोग बढ़ता जाता है । ज्ञानी गृहस्थ भी आवश्यकतानुसार आकुलित होकर न्यायपूर्वक विषयभोग करता है । परन्तु उन इन्द्रियोंके भोगोंको और उनके सुखको त्यागने योग्य तथा आगामी दुःखोंका कारण जानता है। इससे जितना-जितना उसके वैराग्य बढ़ता जाता है उतनी उतनी विषयेच्छा भी घटती जाती है। सच्चा सुख आत्माका स्वभाव है। उसकी ऐसी श्रद्धा होनेसे ज्ञानीके न्यायपूर्वक किये
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