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सारसमुच्चय हैं । वे यह समझते हैं कि जब तक मेरेमें अज्ञानका व रागद्वेषका किंचित् भी अंश मौजूद है तब तक हम अपनी प्रशंसा क्या करे ? अपवित्र दशामें जरा भी शोभा नहीं देता। इसलिए जब तक हम पूर्ण पवित्र न हों, हम प्रशंसनीय नहीं कहला सकते । जो प्राणी दोष कर लेते हैं वे आत्मबलकी कमीसे कषायोंके उदयके आधीन हो जाते हैं, वे कषायोंको रोकते नहीं, इसलिए वे दयाके पात्र हैं, निन्दाके पात्र नहीं । उनकी निन्दा तो तब की जावे जब आप इन दोषोंसे खाली हों। अनादिकालीन संसारमें यह प्राणी बराबर अनेक दोषोंको कर चुका है अतएव मेरा दूसरोंकी निन्दा करना अज्ञान है। इसलिए संत पुरुष परनिन्दा आत्मप्रशंसा न करके जिस उपायसे अपने गुण बढ़े, दोष छूटे और दूसरोंके गुण बढ़े, दोष छूटे उस उपायको अपना कर्तव्य जानकर करते हैं, वृथा बकवाद नहीं करते हैं। ऐसे सज्जन ही लोकमें सम्मानके पात्र होते हैं।
प्राणान्तिकेऽपि सम्प्राप्ते वर्जनीयानि साधुना ।
परलोकविरुद्धानि येनात्मा सुखमश्रुते ॥८७॥ अन्वयार्थ-(प्राणान्तिके अपि सम्प्राप्ते) प्राणोंके अन्त होनेपर भी (साधुना) साधुको (परलोकविरुद्धानि) परलोकसे विरुद्ध कार्योंको (वर्जनीयानि) त्याग देना चाहिए। (येन) इसी उपायसे (आत्मा) यह आत्मा (सुखं) सुखको (अश्रुते) भोग सकता है।
भावार्थ-मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य, अविरतिभाव, प्रमाद, कषाय, मन, वचन, कायका अन्यथा वर्तन अकरणीय कार्योंके करनेसे ऐसा पापका बंध होता है जिनके उदयसे यह प्राणी एकेंद्रियादि अशुभ पर्यायोंमें पहुंचकर घोर कष्ट सहता है। इसलिए वही साधु है जो इन सब कार्योंको मन, वचन, कायसे छोडकर संयम और तप सहित आत्माके शुद्ध स्वभावका मनन या अनुभव करता है। यही वह उपाय है जिसमें वर्तमानमें भी सुख होगा और भविष्यमें भी सुखकी प्राप्ति रहेगी।
__ संमानयति भूतानि यः सदा विनयान्वितः ।।
स प्रियः सर्वलोकेऽस्मिन्नापमानं समश्रुते ॥८८॥ अन्वयार्थ-(यः) जो (सदा विनयान्वितः) विनयवान है (सः) वह (भूतानि) प्राणीमात्रका (संमानयति) सम्मान करता है । (सः) वह (अस्मिन् सर्वलोके) इस सर्व लोकमें (प्रियः) प्रिय माना जाता है (अपमान) वह अपमान (न समश्नुते) नहीं भोगता है।
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