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सारसमुच्चय
कामवासनाकी असारता
स्त्रीसंपर्कसमं सौख्यं वर्णयन्त्यबुधा जनाः । विचार्यमाणमेतद्धि दुःखानां बीजमुत्तमम् ॥९०॥
अन्वयार्थ - (अबुधाः जनाः) अविवेकी मानव (स्त्रीसंपर्कसमं) स्त्रीके ससर्गको ( सौख्यं) सुख (वर्णयन्ति ) कहते हैं । ( विचार्यमाणं ) किन्तु विचार किया जावे तो ( एतत् हि) यह ही ( दुःखानां) दुःखोंके (उत्तमं बीजं) बड़े भारी बीज हैं।
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भावार्थ - जिनको दीर्घ विचार नहीं है, जो क्षणिक सुखमें लुब्ध हैं वे यही कहते हैं कि स्त्री - भोगके समान सुख नहीं है । वे अन्ध होकर स्त्री-भोग किया करते हैं । यदि सम्यक् प्रकारसे विचार किया जावे तो यह उनकी मान्यता ठीक नहीं है । स्त्री - भोगके सुखको सुख मानना वास्तवमें किम्पाक फलका खाना है । कामविकारसे पीडित होकर यह प्राणी जब दुःखित होता है तब उस पीडाको शांत करनेको स्त्रीसंभोग करता है । वह स्त्री उसके वीर्यरूपी रत्नको हरकर उसे तुर्त निर्बल कर देती है तथा पुनः भोग करनेकी दाहको उत्पन्न कर देती है । उस दाहसे पीडित होकर यह पुनः स्त्रीभोग करके अतिशय निर्बल हो जाता है । निर्बलको अनेक रोग सताते हैं, वह रोगी हो जाता है, तब खाया पीया भी नहीं जाता । यह मानवजीवन बिगड जाता है, धर्मका साधन न कर सकनेके कारण और स्त्रीभोगकी तृष्णा बनी रहनेके कारण वह कुगतिमें जाकर दुःख उठाता है । अन्यायपूर्वक स्त्री- भोग तो महान अनर्थकारी है ही । शरीरशक्ति, धन, आत्मबल, धर्म, यश सर्व नाश करनेवाला है, परन्तु जो न्यायपूर्वक अपनी स्त्रीका ही भोग अति कामी होकर करते हैं वे भी निर्बल रोगी हो दुःख पाते हैं, धर्मरहित जीवन बिताते हैं । अतएव स्त्रीसंभोग सुख नहीं है । काम बाधाका क्षणिक झूठा उपाय है । इसका सर्वथा त्याग ही श्रेष्ठ सुखका कारण है । यदि कदाचित् आत्मबलकी कमीसे ऐसा न हो सके तो गृहस्थ में स्वस्त्री-संतोष रखके केवल संतानलाभके हेतु बहुत अल्प स्त्रीसंभोग करे, जिससे धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ न बिगड़े, शरीर स्वास्थ्ययुक्त रहे, वीरतापूर्ण जीवन बीते, और स्वस्त्रीभोगमें संतोषसहित प्रवृत्ति करे। वीर्यरक्षा और ब्रह्मचर्यके समान कोई सुखदायी वस्तु नहीं है ।
स्मराग्निना प्रदग्धानि शरीराणि शरीरिणाम् । शमाम्भसा हि सिक्तानि निवृत्तिं नैव भेजिरे ॥९१॥
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