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इन्द्रिय-भोगोंकी असारता
४५ सकता । इसलिए जो इस असार संसारका अन्त करना चाहते हैं उनका परम कर्तव्य है कि वे इन्द्रियोंकी इच्छाओंको शांत करे, सादा जीवन बितावें, आवश्यक प्राप्त वस्तुमें संतोष रखें, यथाशक्ति मन, वचन, कायको संवरमें रखकर महाव्रत या अणुव्रतका पालन करें और अन्तरङ्गमें आत्मिक रसका स्वाद लें, तो नवीन कर्मका बंध रुकेगा, और अत्यल्प बंध होगा और पुरातन संचित कर्मकी प्रचुर निर्जरा होगी। वीतरागताका अभ्यास उसी क्षण आत्मसुखका अनुभव करायेगा और संसारको छेद करता चला जायेगा।
इन्द्रियाणि वशे यस्य यस्य दुष्टं न मानसम् ।
आत्मा धर्मरतो यस्य सफलं तस्य जीवितम् ॥८५॥ अन्वयार्थ-(यस्य वशे) जिसके वशमें (इन्द्रियाणि) पाँचों इन्द्रियाँ है, (यस्य मानसं) और जिसका मन (दुष्टं न) दुष्ट या दोषी नहीं है, (यस्य आत्मा) जिसका आत्मा (धर्मरतः) धर्ममें रत है (तस्य जीवितम्) उसका जीवन (सफलं) सफल है।
भावार्थ-मानव जीवनकी सफलता ही वही है जहाँ आत्मा को दयजन्य साता परिणतिमें सन्तोष रखता है और प्रतिकूल सामग्रीके मिलने पर भी असन्तुष्ट नहीं होता; किन्तु वास्तविक सुख-शान्तिके लिए प्रयत्नशील रहता है । धर्माचरण करते हुए भी इच्छाशक्तिके दमनमें शिथिल नहीं होता। किन्तु जब आत्मा इच्छा-शक्तिके दमनमें अशक्त हो जाता है तभी वह इन्द्रिय-विषयोंके जालमें फँस जाता है और संसार वृद्धिके कार्योंमें तन्मय हो जाता है और तभी वह दुःखका पात्र बनता है। अतः जो व्यक्ति पाँच इन्द्रियाँ और मनको स्वाधीन रखता है उनकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको रोक देता है तथा जो अपने जीवनके समयको धर्मके साधनमें लगाता है, मुनि या श्रावकका चरित्र बड़े उत्साहसे सम्यग्दर्शन सहित पालता है उस ही महात्माका नरजन्म पाना उपयोगी है।
परनिन्दासु ये मूका निजश्लाघापराङ्मुखाः ।
ईदृशैर्ये गुणैर्युक्तास्ते पूज्याः सर्वविष्टपे ॥८६॥ अन्वयार्थ-(ये) जो व्यक्ति (परनिन्दासु) दूसरोंकी निन्दा करनेमें (मूकाः) मौन रखते हैं (निजश्लाघापराङ्मुखाः) तथा अपनी प्रशंसासे उदासीन हैं, कभी अपनी बड़ाई नहीं करते हैं और (ये) जो (ईदृशैः गुणैः) इस प्रकारके गुणोंसे (युक्ताः) युक्त हैं (ते) वे (सर्वविष्टपे) सर्व लोकमें (पूज्याः) पूज्यनीय हैं ।
भावार्थ-वही ज्ञानी है जो दूसरोंके दोषोंके ग्रहणमें व उनके वर्णनमें उदासीन है तथा अपने भीतर गुण होते हुए भी अपना गुणगान नहीं करते
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