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सारसमुच्चय अन्वयार्थ-(कषायविषयातनां) चार कषाय और पाँचों इंद्रियोंके विषयोंसे जो पीडित हैं उन (देहिनां) शरीरधारियोंको (निर्वृतिः) मोक्षका लाभ (नास्ति) नहीं हो सकता है (तेषां च) उनके ही (विरमे) छोडने पर (परम अद्भुतं) परम आश्चर्यकारी (सौख्यं) सुख (जायते) प्रकट हो जाता है ।
भावार्थ-जब तक आत्माके विभाव परिणाम क्रोधादि कषायोंमें विकार एवं मलिनता उत्पन्न कर रहे हैं तथा इन्द्रियोंकी चाहकी दाह जलन उत्पन्न कर रही है तब तक बन्ध बढ़ता जायेगा । रागी, द्वेषी, मोही जीव ही कर्मोंका बंध करता है। ऐसी दशामें मोक्षका होना असंभव है। जब इन विषय-कषायोंका मैल आत्मिक भावसे दूर हो जायेगा तब उसी समय
आत्मानंदका स्वाद आयेगा, जिस सुखकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती है। इस सुखका ऐसा बढ़िया स्वाद है कि विचारनेसे आश्चर्य होता है ।
कषायविषयै रोगैश्चात्मा च पीडितः सदा ।
चिकित्स्यतां प्रयत्नेन जिनवाक्सारभैषजैः॥२९॥ अन्वयार्थ-(कषायविषयै रोगैः च) कषाय और विषयरूपी रोगोंसे ही (च आत्मा) यह आत्मा (सदा पीडितः) सदा कष्ट पा रहा है, इसलिए (जिनवाकुसार भैषजैः) जिनवचनके द्वारा बताई हुई उत्तम औषधियोंसे (प्रयत्नेन) उद्योग करके (चिकित्स्यतां) दवाई करनी उचित है।
भावार्थ-इस अज्ञानी एवं आत्मबल खोये हुए प्राणीको कषायोंका व इन्द्रियके विषयभोगोंकी चाहनाका रोग लगा हुआ है । इसलिए उचित है कि जिनवाणीने जो रत्नत्रय धर्मरूपी औषधि बताई है उसका उद्योग करके सेवन किया जावे, तो शीघ्र ही विषयकषायोंका रोग मिट जायेगा और यह प्राणी स्वास्थ्य लाभ करके सच्चा सुख व शांति प्राप्त कर सकेगा।
विषयोरगदष्टस्य कषायविषमोहितः ।
संयमो हि महामंत्रस्त्राता सर्वत्र देहिनाम् ॥३०॥ अन्वयार्थ-(विषयोरगदष्टस्य) जिसको विषयरूपी नागने काटा हो (कषायविषमोहितः) और जो कषायरूपी जहरसे मूर्छित हो (देहिनाम्) ऐसे प्राणियोंके लिए (संयमः हि) संयम ही (महामंत्रः) महामन्त्र है । यह (सर्वत्र) सर्व स्थानोंमें (त्राता) रक्षा करनेवाला है।
___ भावार्थ-विषयोंकी चाहकी दाहरूपी नागिनसे इंसे हुए प्राणीको लोभादि कषायका तीव्र विष चढ़ जाता है। इस विषके झाड़नेका या जिस
पाठान्तर-१. कषायविषयोरगैश्चात्मा ।
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