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सम्यग्दर्शनका महत्त्व निकटभव्योंको ही प्राप्त होती है। जिनका संसारवास शीघ्र छूटनेवाला है वे ही निकटभव्य हैं । यह बात सर्वज्ञके ज्ञानगोचर है । सम्यग्दर्शन एक अपूर्व प्रकाश करनेवाला परम तेजस्वी सूर्य है। जब यह प्रकाश होता है तब अनादि कालका मिथ्यात्वरूप अन्धेरा बिलकुल लोप हो जाता है, तब पूर्वबद्ध कर्म भी ढीले पड़ जाते हैं। जिस वृक्षके पत्ते हरे हों पर जड़ कट गई हो उस समान सम्यग्दृष्टिके कर्मोंकी स्थिति हो जाती है। सम्यक्त्वके होते हुए आत्मानुभवकी धूप जितनी जितनी तेज होती है उतनी ही जल्दी शेष कर्मोंका शोषण हो जाता है और यह आत्मा मुक्त हो जाता है।
सम्यक्त्वभावशुद्धेन विषयासङ्गविवर्जितः ।
कषायविरतेनैव भव-दुःखं विहन्यते ॥५०॥ अन्वयार्थ-(विषयासंगविवर्जितः) जो इंद्रियोंके विषयोंकी आसक्तिसे रहित है वह (सम्यक्त्वभावशुद्धैन) सम्यग्दर्शनकी शुद्धतासे (कषायविरतेन) और कषायोंसे विरक्त होनेसे (भवदुःखं) संसारके दुःखोंको (एव) अवश्य ही (विहन्यते) नाश कर देता है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीवके भाव नियमसे आत्मरुचि सहित होते हैं। वह अतीन्द्रिय सुखका प्रेमी होता है। अतएव उसके भावोंमें न विषयोंकी आसक्ति होती है और न ही कषायोंकी तीव्रता होती है। वह आत्मानुभवका अभ्यास करता रहता है। इस कारण उसके वीतरागताका अंश बढ़ता जाता है, सरागताका अंश घटता जाता है, पुरातन कर्मोंकी निर्जरा अधिक होती है, नवीन कर्मोंका संवर होता है, जिससे वह सब कर्मोंसे रहित हो मुक्त हो जाता है।
संसारध्वंसनं प्राप्य सम्यक्त्वं नाशयन्ति ये ।
वमन्ति तेऽमृतं पीत्वा सर्वव्याधिहरं पुनः॥५१॥ अन्वयार्थ-(संसारध्वंसन) संसारको नाश करनेवाले (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शनको (प्राप्य) प्राप्त करके (ये) जो कोई (नाशयन्ति) उस सम्यक्त्वको नाश कर देते हैं-फिर मिथ्यात्वी हो जाते हैं (ते) वे मानो (सर्वव्याधिहरं) सर्व रोगोंको दूर करनेवाले (अमृत) अमृतको (पीत्वा) पीकर (पुनः) फिर (वमन्ति) उसका वमन कर देते हैं। ___भावार्थ-सम्यग्दर्शनरूपी रत्न इतना अमूल्य है कि इसके सामने चक्रवर्ती व इन्द्रादिक पद सब तुच्छ हैं। अनादिकालके तृष्णारूपी रोगको शमन कर परमानन्दरूपी अमृतको पिलाकर यह सम्यग्दर्शन भव्यजीवको
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