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धर्म सुखकारी व तारक है। डुबानेवाले कर्मोंका नाशक है । यही भाव उस बातकी प्रेरणा करता है कि अपने आत्माको भी क्रोधादि हिंसक भावोंसे बचाओ तथा जगतके प्राणियोंके साथ व्यवहार करते हुए उनकी भी यथाशक्ति रक्षा करो। प्रमादभावसे वर्तन न करो जिससे प्राणी वृथा कष्ट पावें।
यदा कण्ठगतप्राणो जीवोऽसौ परिवर्त्तते ।
नान्यः कश्चित्तदा त्राता मुक्त्वा धर्मं जिनोदितम् ॥६५॥ अन्वयार्थ-(यदा) जब (असौ) यह (कंठगतप्राणः) मरणके सन्मुख होता हुआ (जीवः) जीव (परिवर्तते) इस शरीरको छोडकर दूसरेमें जाता है (तदा) तब (जिनोदितं धर्म) जिनेन्द्रकथित धर्मको (मुक्त्वा) छोडकर (कश्चित्) कोई (अन्यः) दूसरा (त्राता न) रक्षक नहीं है ।
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवानने सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी एकतारूप आत्मानुभवको धर्म कहा है और इसके साधक व्यवहारोंको भी धर्म कहा है। शुद्धोपयोग मुख्य धर्म है, जो नवीन बंधको रोकता है व पुराने कर्मोंको काटता है, आत्माको शुद्ध करता है। शुभोपयोग व्यवहारधर्म है इससे पुण्य कर्मका बंध होता है । जब संसारी प्राणी मरने लगता है उस समय कोई भी मरणसे बचा नहीं सकता । स्त्री, पुत्र, मित्र, वैद्य, धन-सम्पदा, औषधि सब पड़े रह जाते हैं। कोई इस जीवके साथ भी नहीं जाता । ऐसी असमर्थ दशामें मरणके समय यदि धर्मको स्मरण किया जावे, तो शुभलेश्यासे मरकर यह जीव देवगतिको ही प्राप्त होता है और यदि देव न हो तो मनुष्यगतिको प्राप्त होता है। पुण्यके उदयसे जिस गतिमें जावे वहाँ साताकारी संयोग प्राप्त हों और ऐसे साधन मिलें, जिनसे फिर भी पवित्र जिनधर्ममें परम प्रीति हो जावे । परम शरण, परम रक्षक सदा ही सुखप्रद हो ऐसा यदि कोई मित्र है तो वह धर्म ही है । जो धर्मसे प्रीति करता है वह सदा दुःखोंसे बचता है । यदि तीव्र कर्मोंके उदयसे भारी कष्ट आ भी जाता है तो धर्मके प्रतापसे इस कष्टको धैर्यके साथ सह सकता है। धर्मके समान कोई उपकारी नहीं है।
अल्पायुषा नरेणेह धर्मकर्मविजानता ।
न ज्ञायते कदा मृत्युभविष्यति न संशयः॥६६॥ अन्वयार्थ-(इह) इस जगतमें (धर्मकर्मविजानता) धर्मकर्मको जाननेवाले (अल्पायुषा) थोडी आयुवाले इस (नरेण) मानव द्वारा (न ज्ञायते) नहीं जाना जा सकता कि (कदा) कब (मृत्यु) मरण (भविष्यति) होगा । (संशयः न) इस बातमें
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