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धर्माचारकी प्रेरणा
२९ अन्वयार्थ-(येन) उस (मिथ्यामोहेन) मिथ्यात्वभावसे (मोहिताः) मूढ होते हुए (मानवाः) मनुष्य (कुशासनैः) मिथ्या उपदेशोंसे (विप्रलुब्धाः) मिथ्यामार्गके लोभी होते हुए (मानस्था) शरीरके अहंकारमें फँसकर (आत्मतत्त्वं) आत्मिक तत्त्वको (न जानन्ति) नहीं जान पाते हैं।
भावार्थ-एक तो मानवोंके भीतर अनादि कालका अग्रहीत मिथ्यात्व होता ही है जिससे वे शरीरासक्त बने ही रहते हैं। दूसरे उनको विपरीत मार्गका उपदेश मिल जाता है । एकान्त व असत्य धर्मके उपदेशोंसे लुभाकर वे कुदेवादिकी भक्तिमें, सराग क्रियाओंमें तथा हिंसाकारक आचरणोंमें सुखके लोभी हो तल्लीन हो जाते हैं । उनको वैराग्यमयी आत्मतत्त्वका उपदेश नहीं सुहाता, अतएव वे आत्मज्ञानको कभी भी नहीं जान पाते हैं। रात दिन मैं ऐसा मैं ऐसा, इस अहंकारमें ग्रसित रहते हैं। मैं शुद्धात्मा हूँ यह ज्ञान उनमें कभी जागृत नहीं होता है।
धर्माचारकी प्रेरणा दुःखस्य भीरवोऽप्येते सद्धर्मं न हि कुर्वते ।
कर्मणा मोहनीयेन मोहिता बहवो जनाः ॥५४॥ अन्वयार्थ-(दुःखस्य भीरवः) दुःखोंसे भयभीत (अपि) होते हुए भी (एते) ऐसे (बहवः जनाः) बहुतसे मनुष्य हैं जो (मोहनीयेन कर्मणा) मोहनीय कर्मके. कारण (मोहिता) मोहित होते हुए (सद्धर्म) यथार्थ धर्मका (न हि कुर्वते) आचरण नहीं करते हैं।
भावार्थ-जगतमें सब ही प्राणी दुःखोंसे डरते हैं और सदा सुखशांति चाहते हैं। तथापि बहुतसे मानव दुःखके कारणरूप अधर्मको नहीं छोडते
और सच्चे सुखके कारणरूप सद्धर्मको नहीं पालते । जैसे कोई नीरोग रहना चाहे परंतु रोगके कारणोंको तो न त्यागे और यथार्थ औषधिका सेवन न करे तो वह अधिकतर रोगी होकर क्लेश ही भोगेगा; इसी तरह अज्ञानी मानव स्त्री, पुत्र, कुटुंबके मोहके भीतर ऐसे अंध हो जाते हैं कि कभी न तो सच्चे धर्मको समझनेका प्रयत्न करते हैं और यदि समझ भी लेते हैं तो उनका आचरण नहीं करते हैं। अतएव दुःखोंसे भयभीत होनेपर भी दुःख ही पाते हैं।
कथं न रमते चित्तं धर्मे चैकसुखप्रदे ।
देवानां दुःखभीरूणां प्रायो मिथ्यादृशो यतः॥५५॥ पाठान्तर-१. धर्मेऽनेकसुखप्रदे । २. जीवानां ।
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